आखिर आपराधिक मामलों का सामना करने वालों को चुनाव लड़ने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए?
सम्पादकीय
यह संतोषजनक तो है कि सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों को तेजी से निपटाने की मांग वाली याचिका स्वीकार कर ली, लेकिन बात तब बनेगी, जब ऐसे कोई निर्देश दिए जाएंगे, जिससे ऐसे मामलों का निस्तारण एक तय अवधि में हो सके। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि दागी छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि राजनीतिक दल आपराधिक इतिहास वालों को चुनाव मैदान में उतारने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेते हैं। उन पर निर्वाचन आयोग के इस निर्देश का कोई असर नहीं पड़ा कि उन्हें यह बताना होगा कि उन्होंने आपराधिक छवि वालों को प्रत्याशी क्यों बनाया? इस सवाल पर राजनीतिक दल यही जवाब देकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं कि ऐसे प्रत्याशी चुनाव जीतने की क्षमता रखते हैं।
निर्वाचन आयोग इस जवाब के आगे इसलिए बेबस हो जाता है, क्योंकि उसके पास यह अधिकार ही नहीं कि वह आपराधिक इतिहास वालों को चुनाव लड़ने से रोक सके। वास्तव में यह निर्देश उसी तरह निर्थक साबित हुआ, जिस तरह वह व्यवस्था नाकाम हुई, जिसके तहत उम्मीदवारों को यह बताना होता है कि उनके खिलाफ कितने मामले चल रहे हैं? यह एक यथार्थ है कि औसत मतदाता इस तरह के विवरण पर गौर नहीं करता। इसका एक कारण यह है कि दागी नेता यह प्रचार करते रहते हैं कि उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया। दागी छवि वाले जनप्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या इन निर्देशों की निर्थकता को ही बयान करती है।
दो वर्ष पहले आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों और विधायकों की सख्या 4122 थी, जो अब बढ़कर 4984 हो गई है। ऐसा तब हुआ है, जब बीते चार वर्षो में 2775 मामलों का निपटारा किया जा चुका है। इसकी भी अनदेखी न करें कि हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में संगीन आरोपों से घिरे माफिया किस्म के कुछ नेता भी चुनाव जीत गए। इनमें से कुछ तो जेल में बंद होने के बाद भी जीत हासिल करने में समर्थ रहे।
आखिर यह लोकतंत्र का उपहास नहीं तो और क्या है? सुप्रीम कोर्ट को इस विडंबना पर भी ध्यान देना होगा कि किसी कैदी को वोट देने का तो अधिकार नहीं, लेकिन वह चुनाव लड़ सकता है। आखिर आपराधिक मामलों का सामना करने वालों को यह अधिकार क्यों मिलना चाहिए?
दैनिक जागरण के सौजन्य से सम्पादकीय