फिर खतरा बनता अफगानिस्तान: संजय गुप्त

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के सत्ता संभालते ही यह बात स्पष्ट होने लगी थी

Update: 2021-08-02 04:27 GMT

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के सत्ता संभालते ही यह बात स्पष्ट होने लगी थी कि अमेरिका अफगानिस्तान से जल्द ही अपनी सेनाओं को वापस बुला लेगा। आखिरकार ऐसा ही हुआ। कुछ समय पहले बाइडन ने अचानक यह घोषणा कर दी कि 31 अगस्त तक अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान से अपने साजो-सामान के साथ लौट आएंगी। इस घोषणा के साथ ही तालिबान ने अपनी सैन्य सक्रियता और बढ़ा दी। वह अमेरिका के साथ हुए समझौते को दरकिनार कर अफगानिस्तान के ज्यादा से ज्यादा इलाके पर कब्जा करना चाह रहा है। वह सीमांत इलाकों को खास तौर पर कब्जाने की कोशिश कर रहा है, ताकि अफगानिस्तान सरकार को कमजोर किया जा सके। वह बड़े शहरों पर भी कब्जा करने की फिराक में है। इसी सिलसिले में उसने कंधार की घेरेबंदी शुरू की और पिछले दिनों पाकिस्तान से लगते स्पिन बोल्डाक इलाके पर कब्जा करने की कोशिश की। यह वही इलाका है, जहां तालिबान ने भारतीय फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी की बर्बरता से हत्या की। उनकी हत्या इसीलिए की गई, क्योंकि वह भारतीय थे। इससे यही पता चलता है कि तालिबान भारत से घृणा करते हैं।

तालिबान की लड़ाई आसान बनाने के लिए पाकिस्तान से लश्कर और जैश के लड़ाके भी अफगानिस्तान पहुंच गए हैं। जब अमेरिका की बची-खुची सेनाएं अफगानिस्तान से लौटने की तैयारी कर रही हैं, तब अमेरिका ने यह भी घोषणा की कि वह इराक से भी एक साल के अंदर अपनी सेनाओं को वापस बुलाएगा। अमेरिका ने दो दशक पहले अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया से आतंक को समाप्त करने के लिए यहां अपने कदम रखे थे, लेकिन वह ऐसा किए बगैर ही अपनी सेनाओं को वापस बुला रहा है। अफगानिस्तान और इराक से सेनाएं लौटाने का डेमोक्रेटिक पार्टी का फैसला अमेरिकी नागरिकों की इस सोच पर आधारित है कि आखिर उनके अपने लोग दूसरे देशों में अपनी जान क्यों गंवाएं? अमेरिका अब इस नीति पर पहुंच रहा है कि जिन देशों में आतंकी संगठन सक्रिय हैं और वे अमेरिकी हितों के लिए खतरा बन सकते हैं, वहां की जमीन पर अपने सैनिकों को उतारने से बचा जाए। इसके बजाय वह ड्रोन या हवाई हमलों से आतंकियों को निशाना बनाने का काम करेगा। इन दिनों वह यही काम अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ कर रहा है। फिलहाल यह कहना कठिन है कि अमेरिका के हवाई हमले तालिबान को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं, क्योंकि वे अपने कदम पीछे खींचते अथवा उस समझौते का पालन करते नहीं दिखते, जो अमेरिका के साथ हुआ था।
अफगानिस्तान छोडऩे के अमेरिका के फैसले से भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि वहां उन तालिबान के काबिज होने की आशंका उभर आई है, जो न केवल किस्म-किस्म के आतंकी संगठनों को पनाह देते हैं, बल्कि पाकिस्तान के पिट्ठू हैं। तालिबान के खतरनाक इरादों से अफगानिस्तान में भारतीय हितों के लिए गंभीर खतरा पैदा होने के साथ ही इसकी भी आशंका बढ़ गई है कि पाकिस्तान तालिबान की मदद से कश्मीर में आतंकवाद बढ़ाने का काम कर सकता है। भारत अफगानिस्तान के निर्माण में जुटा हुआ था। उसने इस देश में स्कूल, सड़कें, संसद भवन समेत बुनियादी ढांचा खड़ा करने का एक बड़ा काम किया है। वह अफगानिस्तान को एक लोकतांत्रिक देश के रूप में स्थापित करने के लिए हर संभव मदद दे रहा था। तालिबान अफगानिस्तान के साथ-साथ मध्य एशिया के देशों और भारत के लिए भी एक गंभीर चुनौती है। इस चुनौती के बीच अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन भारत आए और उनसे भारतीय नेताओं की अफगानिस्तान पर व्यापक बातचीत हुई। उनके बाद अमेरिकी सेना प्रमुख भी भारत यात्रा पर आए। अफगानिस्तान को लेकर भारत और अमेरिका के बीच चर्चा इसलिए जरूरी है, क्योंकि जिस समय अमेरिकी विदेश मंत्री भारत में थे, उसी समय चीनी विदेश मंत्री तालिबान नेताओं को चीन बुलाकर बातचीत कर रहे थे। चीन ने तालिबान नेताओं की जिस तरह आवभगत की, उससे अमेरिका और भारत की चिंता बढ़ी है। यह अंदेशा गहरा रहा है कि चीन और पाकिस्तान मिलकर अफगानिस्तान को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करेंगे
अफगानिस्तान में अमेरिका की नाकामी पर हैरानी नहीं। वह वहां इसीलिए नाकाम हुआ, क्योंकि उसने तालिबान को संरक्षण देने वाले पाकिस्तान पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। इसके पहले रूस भी अफगानिस्तान में नाकाम हो चुका है। जब रूसी सेनाएं अफगानिस्तान में थीं, तब अमेरिका ने मुजाहिदीन तैयार कर उन्हेंं हथियार दिए। बाद में उनका स्थान तालिबान ने ले लिया। इन्हेंं पाकिस्तान ने प्रशिक्षित किया और अमेरिका ने भी उनकी सहायता की। तब शायद अमेरिका को यह पता नहीं था कि जिस तालिबान की वह मदद कर रहा है, वही उसके सीने में खंजर घोप देगा। तालिबान ने उस अलकायदा को पाला-पोसा, जिसने 9-11 हमले को अंजाम दिया। तालिबान और अलकायदा जितना खतरनाक इस्लामिक स्टेट भी है, जिसने सीरिया और इराक में सिर उठाया। यह आतंकी संगठन भी अमेरिकी की गलत नीतियों से उभरा। ऐसे ही आतंकी संगठन लीबिया में भी उभरे। यह अंदेशा है कि अफगानिस्तान में तालिबान के काबिज होने से कोई नया आतंकी संगठन उभर सकता है, क्योंकि यह साफ दिख रहा कि वह अलकायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को अपना समर्थन देना जारी रखेगा। यह भी तय है कि पाकिस्तान तालिबान का पूरा साथ देगा।
पाकिस्तान भले ही यह कह रहा हो कि वह तालिबान का प्रवक्ता नहीं, लेकिन सच यही है कि वह उसे हर तरह का सहयोग और समर्थन दे रहा है। इसका पता पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के इस बयान से चलता है कि तालिबान कोई सैन्य संगठन नहीं, वे सामान्य नागरिक हैं। पाकिस्तान ने हमेशा भारत के प्रति शत्रुवत रवैया अपनाया है। वह आज भी कश्मीर को हथियाने का सपना पाले हुए है। चूंकि वह आमने-सामने के युद्ध में भारत से नहीं जीत सकता, इसलिए वह कश्मीर में छद्म युद्ध छेड़े हुए है। इस छद्म युद्ध में वह तालिबान की भी सहायता ले सकता है। इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि कश्मीर में सक्रिय रहने वाले लश्कर और जैश तालिबान के सहयोगी हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं कि मोदी सरकार अफगानिस्तान के मामले में किस नीति पर चलेगी, लेकिन उसकी जैसी विदेशी नीति रही है, उससे यह तय है कि वह न तो हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहेगी और न ही अफगानिस्तान को तालिबान के हाथों में जाता हुआ देखती रहेगी।


Tags:    

Similar News

-->