By: divyahimachal
आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ में छपे आलेख का सारांश यह है कि आखिर भाजपा कब तक ‘मोदी के मैजिक’ और हिंदूवाद के भरोसे रहेगी? प्रधानमंत्री मोदी का कथित करिश्मा और वैचारिक ताकत दोनों ही ‘चरमोत्कर्ष’ को छू चुके हैं। अब आगे के विस्तार की कोई संभावना नहीं है। स्थानीय, क्षेत्रीय नेतृत्व का विकल्प मोदी नहीं हो सकते, लिहाजा भाजपा को अपने क्षेत्रीय क्षत्रपों को मजबूत करना होगा, जो ‘जनसंघ’ के दौर से पार्टी की बुनियादी ताकत रहे हैं। बेशक आज वे सीमित और संकुचित लगते हैं। ‘ऑर्गेनाइजर’ और ‘पांचजन्य’ संघ के अंग्रेजी-हिंदी मुखपत्र हैं। संघ भाजपा को जो भी नसीहत या चेतावनी देना चाहता है, इन्हीं मुखपत्रों के आलेखों अथवा संपादकीय के जरिए कहता रहा है। संघ में सर्वेक्षण की कोई परंपरा नहीं है। संघ अपने स्थानीय प्रचारकों के जरिए सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सामयिक सूचनाएं एकत्रित करता है और फिर भाजपा तक प्रेषित करता है। हालांकि संघ का यह बुनियादी एजेंडा भी नहीं है कि वह भाजपा की राजनीति की दिशा और दशा को दुरुस्त करे, लेकिन भाजपा संघ की सोच का ही एक अंतरंग हिस्सा है, लिहाजा महत्त्वपूर्ण चुनावों से पहले वह पार्टी को सचेत जरूर करता रहा है। संघ के मुखपत्र में छपे आलेख पर कर्नाटक चुनाव और उसके जनादेश की चिंताएं छाई लगती हैं। भाषायी पुनर्गठन के खतरों की चिंता और मुसलमान-चर्च की लामबंदी के समीकरण कर्नाटक चुनाव तक ही सीमित थे। अब राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम राज्यों में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन वे सभी चुनाव कर्नाटक की तर्ज पर होंगे, ऐसा बिल्कुल भी संभव नहीं है। सबसे गौरतलब यह है कि अब देश की जनता प्रधानमंत्री मोदी और उनके मुद्दों, आश्वासनों से ऊबने लगी है।
हालांकि यह दीगर है कि अभी तक जितने भी सर्वेक्षण सामने आए हैं, उनमें प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता सबसे अधिक है, लेकिन राहुल गांधी भी स्वीकार्यता में आगे बढ़ते जा रहे हैं। संघ का विश्लेषण यह है कि जातिवाद, क्षेत्रवाद, धार्मिक पहचान और मोदी के देशव्यापी करिश्मे का जो ‘गोंद’ था, अब वह टूटने लगा है। संघ चिंतित लगता है कि भाजपा का जो ‘यूएसपी’ था, उसके काफी भीतर तक कांग्रेस सेंध लगा चुकी है। ‘कल्याणवाद’ के जरिए मोदी और भाजपा ने जो ‘लाभार्थी’ वोट बैंक तैयार किया था, वह कांग्रेस की ‘गारंटियों’ के प्रति भी लालायित हो रहा है, लिहाजा यह जरूरी नहीं है कि जिन 81.5 करोड़ भारतीयों को ‘मुफ्त अनाज’ बांटा जा रहा है और आम चुनाव तक यह जारी भी रहेगा, उनके वोट निश्चित तौर पर भाजपा के पक्ष में ही जाएंगे। दूसरे पक्षों की ‘मुफ्त बिजली’, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त परिवहन, मुफ्त इलाज और अन्य भत्तों की ‘रेवडिय़ां’ भी आकर्षित करती हैं, लिहाजा वोट बैंक बंट भी रहे हैं। बेशक जातिवाद एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, लेकिन राज्यों में जो भ्रष्टाचार व्याप्त है, प्रधानमंत्री मोदी ही उसका जवाब नहीं हो सकते। सिर्फ हिंदुत्व ही सत्ता-विरोधी लहर की भरपाई नहीं कर सकता। भाजपा धार्मिक ध्रुवीकरण कर वोट हासिल करती रही है। अब उसके भरोसे ही चुनाव नहीं जीते जा सकते। भाजपा को नए, स्थानीय, क्षेत्रीय मुद्दों की पहचान करनी होगी और उन पर समर्थक वोट बैंक बनाने होंगे। चुनावी लड़ाई क्षत्रप एकजुट होकर लड़ेंगे, मोदी उनकी लड़ाई को अधिक पुख्ता और भरोसेमंद विस्तार दे सकते हैं। संघ भाजपा को सचेत कर रहा है कि आगामी चुनाव आसान नहीं होंगे।