नशे की गिरफ्त
नशीले पदार्थों का सेवन देश के दूसरे राज्यों में भी लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में बिहार में जहरीली शराब पीने से पचास से ज्यादा लोगों की मौत की खबर आई। जबकि बिहार में शराब प्रतिबंधित है। फिर भी वहां इस तरह की घटनाएं सरकार और प्रशासन की नाकामी है। हालांकि जहरीली शराब से देश के दूसरे राज्यों में भी मौतें होती रहती हैं।
नशीले पदार्थों का सेवन देश के दूसरे राज्यों में भी लगातार बढ़ता जा रहा है। हाल ही में बिहार में जहरीली शराब पीने से पचास से ज्यादा लोगों की मौत की खबर आई। जबकि बिहार में शराब प्रतिबंधित है। फिर भी वहां इस तरह की घटनाएं सरकार और प्रशासन की नाकामी है। हालांकि जहरीली शराब से देश के दूसरे राज्यों में भी मौतें होती रहती हैं।
दरअसल, आज का युवा नशीले पदार्थों की ओर तेजी से आकर्षित हो रहा है, जो उनके खुद के लिए और उससे ज्यादा देश के लिए चिंता का विषय है। युवाओं को नशे की आदत लगने की वजह से देश में अपराधों में भी बढ़ोतरी होगी। अनेक खबरों में देखा जा सकता है कि नशे की जरूरतें पूरी करने के लिए युवा चोरी, लूटपाट और यहां तक कि अपने परिवार के सदस्यों की हत्या भी कर रहे हैं।
प्रशासन और नेताओं की मिलीभगत की वजह से शराब और नशे की दूसरी चीजें आज समाज में सहज उपलब्ध हैं। पंजाब, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान के साथ-साथ देश के अन्य राज्यों में भी बड़े-बड़े गिरोह हैं जो अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए युवा पीढ़ी को नशे की दुनिया में धकेल रहे हैं और इसमें प्रशासनिक अधिकारी और नेता भी मिले हुए हैं।
कुछ वर्ष पहले युवा अगर सिगरेट भी पीता था तो छिपा कर पीता था, ताकि उसके घर वालों को पता न चले। लेकिन आज ऐसा नहीं है। अच्छे-अच्छे घरों के युवा अपने माता-पिता के सामने ही नशा करते हैं और मां-बाप भी उन्हें नहीं रोकते। शादी-ब्याह में अधिकतर युवा चाहे शराब पीते हैं। आजकल ज्यादातर रेस्तरां में और शादियों में हुक्का संस्कृति भी शुरू हो गई है। इन सबसे समाज में बुराइयां ही बढ़ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट भी इस पर अपनी चिंता जता चुका है। सरकारें राजस्व बढ़ाने के नाम पर आंखें मूंदे रहती हैं। देश को अगर अच्छा भविष्य देना है तो नशीले पदार्थों पर पूरी तरह से सख्ती से रोक लगनी चाहिए।
'भूखे को भोजन' (संपादकीय, 26 दिसंबर) पढ़ा। यह कहा जा सकता है कि आज भारत सरकार ने फिर से एक बड़ा फैसला ले लिया है कि वह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत अगले एक साल तक और 81.3 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देती रहेगी। इसलिए वह आगे भी फिलहाल प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज मुफ्त देती रहेगी। गरीबों को मुफ्त अनाज देना चाहिए, पर सच यह है कि सरकार ने कोरोना काल में इस योजना को शुरू किया था तब वाकई इसकी सख्त जरूरत थी। कारण उन दिनों पूर्णबंदी के कारण सब कुछ बंद था।
इसलिए कमाई के सभी साधन भी बंद थे। तब वाकई यह बेहद जरूरी था। पर आज के समय में, जबकि सब कुछ सामान्य है और हर व्यक्ति को आज कमाकर खाने की पूरी आजादी है। इसलिए जो कमा कर खा रहा है, उसे बार-बार अनाज देकर शर्मिंदा नहीं किया जाना चाहिए। कारण कि इसी वजह से उसकी आदत बिगड़ रही है राशन की लाइन में खड़े होकर मुफ्त का अनाज लेने की।
आज के समय रोजगार भी खुल चुका है और मेहनत कर कमाने का समय भी आ गया है। एक बार तो इसे 'रेवड़ी संस्कृति' कहा जाता है, दूसरी ओर वही किया जाता है। क्या यह उचित है? पिछले कई सालों से लगातार भारत विश्व भुखमरी सूचकांक में पायदान दर पायदान नीचे खिसक रहा है और अगले साल आबादी के पैमाने पर हम दुनिया का सबसे बड़ा देश बनने जा रहे हैं।
इसी तरह से भोजन और पोषण संबंधी चुनौतियां भी हमारे यहां उत्तरोत्तर बढ़ रही है। इसके लिए खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता होना स्वाभाविक है। तब इसके समाधान के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी जरूरत है। सरकार को लोगों को खाना देने से ज्यादा ध्यान रोजगार उपलब्ध कराने और स्थिति को सामान्य करने पर जोर देना चाहिए।
केंद्र सरकार ने गंगा को संभालने और इसके संरक्षण के उद्देश्य से वर्ष 2014 में 'नमामि गंगे' नामक योजना की शुरुआत की थी। यह योजना कितनी कामयाब हुई, इस पर सबके अपने अपने विचार हो सकते हैं। सरकार बेशक गंगा को साफ-सुथरा करने के उद्देश्य से योजना अमल में लाई थी, लेकिन गंगा तभी पूरी तरह साफ होगी जब हम इसे साफ-सुथरा रखने का मन बनाएंगे। लोग गंगा नदी के किनारे जाते है पुण्य कमाने, लेकिन गंगा में पालिथीन या अन्य गंदगी डालने से परहेज नहीं करते। फिर यह पाप हुआ या पुण्य? यह कैसी संस्कृति है?
गंगा भारत की मात्र एक नदी ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति कि एक अनोखी पहचान भी है। इसलिए गंगा की साफ-सफाई का विशेष खयाल रखा जाना चाहिए। महात्मा गांधी ने कहा था कि नदियां हमारे देश की नाड़ियों की तरह हैं। अगर हम उन्हें गंदा करना जारी रखेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी नदियां जहरीली हो जाएंगी। और अगर ऐसा हुआ तो हमारी सभ्यता नष्ट हो जाएगी।
जिन नदियों को हम माता समझते हैं, उन नदियों का प्रदूषित होते हम अपनी आंखों के सामने देख रहे हैं। उनका प्रदूषण हमारे लिए किसी श्राप से कम नहीं हो सकता। जिस दिन देश का हरेक नागरिक यह समझ जाएगा कि उसका अस्तित्व नदियों की वजह से भी है, उस दिन से कोई भी नदियों में गंदगी नहीं डालेगा और उसी दिन से नदियों की साफ-सफाई के सरकारी और गैरसरकारी प्रयास कामयाब होंगे।
अफसोस कि नदियों को माता मानने वाले लोग भी नदियों को स्वच्छ बनाने के लिए सामने नहीं आते, कोई आवाज नहीं उठाते। दुनिया के कई देशों में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जब सरकार और समाज ने मिल कर नदियों को पुनर्जीवन दिया, जबकि वहां नदियों का कोई धार्मिक महत्त्व भी नहीं है। नदियों की साफ-सफाई के लिए अगर अब और देर हो जाती है तो वह दिन दूर नहीं, जब नदियों के देश भारत में बहुत-सी नदियां इतिहास बन जाएंगी।
क्रेडिट: indiatimes.com