नेपथ्य से आती है एक रौबीली आवाज़ और परदे के पीछे का सच डर कर निकल आता है
संभ्रांत और आर्थिक रूप से उच्च वर्ग हमारे देश के सिनेमा को हमेशा सड़क के किनारे पलने वाला कुत्ते का पिल्ला समझता है
संभ्रांत और आर्थिक रूप से उच्च वर्ग हमारे देश के सिनेमा को हमेशा सड़क के किनारे पलने वाला कुत्ते का पिल्ला समझता है, आर्थिक रूप से कमज़ोर तबका अब मल्टीप्लेक्स की टिकट खरीदने को भी बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ाने के समान एक सपना ही समझता है. मध्यम वर्ग की तो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर सिवाय टीका टिप्पणी करने के कोई हस्ती बची नहीं है. ऐसे में एक शख्स, लगातार 26 साल से, सिनेमा को देश की वर्तमान स्थिति के परिप्रेक्ष्य में, ज़िन्दगी के चौराहों पर रास्ता ढूंढने में मदद करने के लिए, परदे पर प्रदर्शित इस विधा के पीछे के फलसफे को उघाड़ने पर तुला हो तो उनके घोषित अघोषित चेलों के अलावा, उनके सबसे कट्टर आलोचक भी इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि कुछ भी कहो चौकसे जी लिखते तो "स्साला" कमाल का है, जाने कहाँ से एंगल ढूंढ के लाते हैं, सोच के ही झुरझुरी आ जाती है.
जय प्रकाश चौकसे, ये एक अजीब व्यक्तित्व रहे. फ़ोन पर आवाज़ सुन कर पहली बार को तो कोई काँप ही जाए और तुरंत फ़ोन रख दे. जब मिलें तो ऐसे मिलें कि आपको लगे कि आप उन्हें बचपन से जानते हैं और वो, आपसे सालों से मिलते आ रहे हैं. दस मिनिट का टाइम होता था तो उनकी बातों की चाशनी में घंटा डेढ़ घंटा कहीं चिपक के रह जाता था. जितनी रौबीली आवाज़ लगती थी, उनके ज्ञान का भण्डार उतना ही बड़ा था, और हर दिन ये शख्स इस भण्डार को भरने से नहीं चूकता था. अंग्रेजी और हिंदी भाषा पर साधिकार लिखते क्योंकि दोनों भाषा के साहित्य में एमए किया था. उर्दू का शौक़ था और थे पढ़ने के शौक़ीन. किस देश के किस लेखक का साहित्य उन्होंने नहीं पढ़ा था, फेहरिस्त बनाने बैठें तो हाथों में दर्द हो जाएगा. किस देश की किस किस भाषा की फिल्म उन्होंने नहीं देखी थी, इसका हिसाब रखें तो लगे कि ये आदमी फिल्म देखने के अलावा कुछ करता भी था या नहीं. लेकिन ये दीवानगी है.
फ़िल्मी दुनिया में जय प्रकाश चौकसे वो शख्स है जिसने हिंदी फिल्म पत्रकारिता को उस जगह पहुँचाया जहाँ उसे यथोचित सम्मान मिलने लगा, और फिल्म पर लिखने वालों को पाठक और फिल्म बनाने वाले दोनों ही गंभीरता से लेने लगे. उनकी लेखनी में दुनिया के कोने कोने के शब्द मिल जाते थे. कभी पीबी शेली की कविता तो कभी विलियम वर्ड्सवर्थ के बोल. कम लोगों को मालूम होगा कि उनके पास ज्ञान का इतना बड़ा खज़ाना था कि 2013 में टेलीविज़न पर दिखाए जाने वाले सीरियल 'महाभारत' में उनसे रिसर्च को लेकर सहायता मांगी गयी थी.
बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) में पैदा हुए, फिर सागर यूनिवर्सिटी और इंदौर यूनिवर्सिटी में पढाई की. जीवन यापन के लिए इंदौर के गुजरती समाज के कॉलेज में पढ़ाने का काम भी किया लेकिन आग तो लिखने की थी. मोहब्बत तो फिल्मों से थी. कहानियां लिखते रहें, लेख छपते रहे, फिल्मों का फलसफा ढूंढने का उनका सिलसिला करीब 50 साल तक चला. उन्होंने इंदौर में रहते हुए, उन्हीं के अंदाज़ में 'आग में हाथ तापे' जब उन्होंने अपनी फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी 'प्राची फिल्म्स' की स्थापना की थी. राज कपूर से लेकर गुलज़ार की कई फिल्में रिलीज़ की. इंदौर के सुप्रसिद्ध रीगल थिएटर में उनका आधिपत्य था, उन्हीं के द्वारा डिस्ट्रीब्यूट की गयी फिल्में वहां प्रदर्शित होती थीं. कुछ फिल्मों में पैसा कमाया और बहुत सारी फिल्मों में पैसा गंवाया लेकिन इस बेढंगी फ़िल्मी दुनिया से कभी भी बेरुखे नहीं हुए. उन्होंने रचनात्मकता की इस विधा से कुछ इस जुनून से मोहब्बत की कि वो अपने मेहबूब यानी फिल्म के प्रोड्यूसर या डायरेक्टर को साफ़ साफ़ कह देते थे, ये तो चलेगी नहीं.
एक किस्सा बड़ा चलता था चौकसेजी के बारे में कि उन्होंने 'मेरा नाम जोकर' देख कर राज कपूर से कहा था कि इसे चार के बजाये तीन घंटे की कर दो नहीं तो रिकवरी मुश्किल है. राज कपूर के लिए मेरा नाम जोकर मैग्नम ओपस थी, उन्होंने ज़िद कायम रखी. फिल्म का हश्र सबने देखा. चौकसे जी ने अपनी बात साबित करने के लिए मेरा नाम जोकर को अपनी तरह और अपनी तरफ से एडिट कर के तीन घंटे की बनायीं और फिर राज कपूर को दिखाई. राज कपूर को उनका वर्शन पसंद आया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. राज कपूर अपनी फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' को लेकर काफी उत्साहित थे, लेकिन आशंकित थे. उन दिनों इंदौर में नयी फिल्में गुरुवार को लगती थीं और मुंबई में शुक्रवार को. गुरुवार को पहला शो ख़त्म होने तक राज कपूर प्रतिपल चौकसे जी से फिल्म को लेकर दर्शकों का रिएक्शन सुनते रहे. जब चौकसे जी ने कह दिया कि फिल्म बम्पर हिट है, तब जा कर राज कपूर को चैन आया.
चौकसे जी की शख्सियत के बारे में सुनाने वाले कई लोग हैं और उनको समझने वाले गिनती के. उन पर अक्सर आरोप लगते रहे कि वो जिन फिल्मों का डिस्ट्रीब्यूशन करते हैं उस पर ही लिखते हैं, यानी अपने लेखों के ज़रिये प्रमोशन करते हैं. चौकसे जी ने कभी इस बात से इंकार नहीं किया और बल्कि छाती ठोंक के कहा इतना भी नहीं कर पाया तो लिखने का क्या फायदा. इसके ठीक विपरीत उनके कॉलम को वर्षों से प्रति दिन बिला नागा पढ़ने वाले कहते हैं कि वो अपनी डिस्ट्रीब्यूट की गयी फिल्मों का भी वैसा ही पोस्टमार्टम करते हैं जैसा कि किसी और की फिल्म का.
उनका कॉलम 'परदे के पीछे', भारत के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बार दैनिक भास्कर में रोज़ाना छपता था. पिछले 26 सालों से. उनके कई फैंस जो उनसे कभी मिले भी नहीं, बस फिल्म और फलसफे के उनके अनूठे कॉकटेल को पढ़ कर ही उनकी महफ़िल के कारिंदे बनने को तैयार बैठे थे. उनका लेख भानुमति के कुनबे को भी मात देता था. किसी भी फिल्म के किसी भी दृश्य की ऐसी विवेचना, उसका इतिहास-भूगोल-रसायन-जीवाश्म सब कुछ लिख डालते थे. पढ़ने वाले सोचते थे कि ये मैंने क्यों न सोचा. जिस फ़िल्मकार की फिल्म की विवेचना कर दी, वो पढ़े तो वो भी सोचते कि मेरी फिल्म के एक दृश्य पर शब्दों की AK56 चल पड़ी है. कारण बड़ा ही आसान था – चौकसे जी का निरंतर अध्ययन. फिल्मों का, फलसफे का, उर्दू की शायरी का, हिंदी की कविता का, विदेशी फिल्मकारों का, गद्य का, पद्य का. पैनी नज़र ऐसी कि बुरहानपुर (उनकी जन्मस्थली) की बस में रोज़ाना चलने वाले कंडक्टर की सोच भी उनसे चूकती नहीं थी.
उन्होंने उपन्यासों का सृजन भी किया था – दराबा, ताज बेकरारी का बयान और महात्मा गाँधी और सिनेमा. राज कपूर से उनके सम्बन्ध कुछ इस तरह के थे कि उनके साथ घंटों तक बतियाते और राज कपूर की सृजन प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते. राज कपूर से पायी इन्ही सीखों को साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि से देखते हुए उन्होंने एक किताब लिखी "राज कपूर : सृजन प्रक्रिया". उनके कॉलम "परदे के पीछे" के चुनिंदा लेखों का संग्रह भी छपा था. फिल्मवालों के लिए भी उन्होंने काफी लिखा. कभी किसी मित्र के कहने पर, कभी अपनी धुन के लिए, तो कभी यूँ ही फिल्म वाले को मदद करने के लिए. कभी नसीरुद्दीन शाह विजयेंद्र घाटगे की फिल्म "शायद" लिखी तो कभी अपने मित्र सलीम खान के लिए उनके बेटे सलमान खान की फिल्म बॉडीगार्ड (मूलतः मलयालम में बनी) को हिंदी दर्शकों के लिए सजाया.
बालिग़ नहीं हुए थे तब से वो एक अख़बार प्रकाशित किया करते थे और ये हॉकर के सामने मैं झुकेगा नहीं, इसलिए अख़बार लोगों के घर तक खुद ही दे आया करते थे. 13 साल की उम्र में उन्होंने राज कपूर की फिल्म "आवारा" देखी थी. हिंदुस्तान में लोगों को मेलों से, गोरे लोगों से और नीली आँख वालों से बेतरतीब मोहब्बत होती है. पंडित जवाहरलाल नेहरू के समाजवाद की कल्पना को सिनेमा पर उतारने वाले राज कपूर और उनकी फिल्म मेकिंग ने चौकसे जी को बहुत प्रभावित किया और शायद उस उम्र से ही उनके दिमाग में ये बात बैठी हुई थी कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कुछ करना है और राज कपूर तक पहुंचना है.
कभी निदा फ़ाज़ली के इंदौर आगमन पर उनकी महफ़िल जमती थी तो कभी गुलज़ार साहब के आने पर उनका मिलना ज़रूरी होता था. निदा फ़ाज़ली तो फ़िल्मी दुनिया में आये और सफल ही जय प्रकाश चौकसे जी की वजह से हुए. सलीम खान तो खैर इंदौर के ही हैं, उनका पूरा परिवार चौकसे अंकल को प्यार करता रहा. राज कपूर के जाने के बाद भी उनके पुत्र रणधीर कपूर या ऋषि कपूर, बरसों तक उनसे फिल्म के सिलसिले में सलाह लेते रहे. ये व्यावसायिक रिश्तों में संभव नहीं होता, लेकिन चौकसे साहब ने दोस्त कमाए, बहुत थोड़े से कमाए लेकिन जो कमाए क्या खूब कमाए. उनकी धर्म पत्नी उषा जी के पिता थे प्रसिद्ध साहित्यकार हरिकृष्ण प्रेमी जिन्होंने फ़िल्मी अभिनेत्री बेबी मुमताज़ को मधुबाला का नाम दिया था. उषा जी का ज़िक्र चौकसे जी के कॉलम में गाहे बगाहे होता रहता था. कई बार अपने दिल की बात वो उषा जी के मार्फ़त कह दिया करते थे. शेर दिल आदमी थे और कभी किसी से डरते नहीं थे इसलिए बेख़ौफ़ हो कर लिखा करते थे. धीरे धीरे समय के साथ जहाँ लोगों के तेवर कमज़ोर होते जाते हैं, चौकसे जी का फलसफा और गहन गंभीर होता चला गया.
कभी कभी नौजवान एडिटर उनका कॉलम "परदे के पीछे" एडिट कर देते थे और फिर अख़बार में छापते थे जिस पर वो खफा हो जाया करते थे. फिर फ़ोन कर के कहते थे मैं तो लिखते समय शब्द सीमा का बंधन नहीं रख सकता. जितना दिल करता है उतना लिखना ही पड़ता है. कभी 500 शब्द होंगे तो कभी 1500. तुम लेख को काटा मत करो, बड़ी मोहब्बत से लिखा है. इतना सुन कर बड़े से बड़ा एडिटर भी अपने शब्दों के ऐसे आशिक के सामने हथियार डाल देता. कम से कम तीन पीढ़ी के लोग जो दैनिक भास्कर अख़बार सिर्फ जय प्रकाश चौकसे जी के "परदे के पीछे" कॉलम के लिए पढ़ते थे. कुछ दिन पहले उन्होंने अपने कॉलम में अपनी लेखनी को विराम देने की बात कही थी क्योंकि उनका स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था. जब कलम रुकी तो सांस भी रुक गयी. चौकसे जी इनसाइक्लोपीडिया की तरह नहीं थे, वो जीती जागती समीक्षा थे. समय की, भूतकाल की, वर्तमान और भविष्य की. समय की परख रखने वाले चौकसे जी वो रौबीली आवाज़ थे जिसे सुन कर परदे के पीछे का सच, खुद ही बाहर आ जाता था. कौन डाँट सुनेगा चौकसे जी की, ये सोच कर.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
Source: News18Hindi
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