2021 ही है भारतीय खेलों के इतिहास का सबसे कामयाब साल!
भारतीय खेलों के इतिहास
2021 में कोरोना महामारी के चलते पूरी दुनिया में जन-जीवन बुरी तरह से प्रभावित रहा और खेल-जगत भी इससे अछूता भला कहां रहा. बावजूद इसके, मैदान में भारत की उपलब्धियां ऐसी रहीं कि शायद इस साल को भारतीय खेलों के इतिहास का सबसे कामयाब साल भी कहा जा सकता है. चौंकियें नहीं, क्योंकि आप सोचेंगे कि इस साल ना तो क्रिकेट वर्ल्ड कप जीता और ना ही हॉकी वर्ल्ड कप तो फिर कैसे ये साल भारतीय खेलों का महानतम साल कहलाने का दावा भी पेश कर सकता है?
लेकिन, खेल का मतलब सिर्फ क्रिकेट ही तो नहीं होता है ना, भले ही ये इस देश का सबसे बड़ा जूनून हो. आखिर, ओलंपिक वाले साल में क्रिकेट की कामयाबी को चुनौती देने के लिए दूसरे खेल और खिलाड़ी भी सामने आ जातें हैं. इस साल टोक्यो ओलंपिक्स में भारत ने सबसे ज़्यादा 7 मैडल जीते और सिर्फ यही संख्या तो अकेले इस साल को महानतम बनाने के लिए काफी है. और, अगर इसमें सोने पर सुहागा के तौर पर पैरा-ओलंपिक में भारत के सर्वश्रैष्ठ प्रदर्शन को भी जोड़ दिया जाए जब हमें 19 पदक मिले(24वां स्थान अब तक सर्वोत्तम प्रदर्शन) तो इस बात में शायद ही किसी को संदेह हो कि वाकई में 2021 का साल कामयाबी के लिहाज से सबसे यादगार रहा.
'बच्चों वाली टेस्ट टीम' का 2021 में गाबा का घंमड तोड़ना रहा अदभुत
क्रिकेट के मैदान पर भले ही टी-20 वर्ल्ड कप में टीम इंडिया सेमीफाइनल तक नहीं पहुंच पाई और जून के महीने में ही न्यूज़ीलैंड को वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनसिप के फाइनल में हराकर पहली बार टेस्ट का वर्ल्ड कप जीतने में आखिरी लम्हें पर चूक गई हो, लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि साल की शुरुआत तो हैरतअंगेज अंदाज में हुई थी, जब ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ पहले सिडनी टेस्ट को ड्रॉ कराया गया और उसके बाद गाबा का घमंड तोड़ा गया.
उससे आज भी ऑस्ट्रेलियाई मायूस दिखते हैं. इंग्लैंड के ख़िलाफ़ महज 11 दिनों के भीतर एशेज़ सीरीज़ जीतने का जश्न उन्हें भारत के 'बच्चों वाली टेस्ट टीम' से 2021 में टेस्ट सीरीज़ हारना अभी भी कचोटता है. ब्रिसबने में ऑस्ट्रेलिया के तीन दशक के दबदबे को ख़त्म करके सीरीज़ जीतना वाकई में सिर्फ भारतीय क्रिकेट ही नहीं बल्कि भारतीय खेलों के इतिहास का बेहद खूबसूरत और अविस्मरणीय अध्याय है.
जैवलीन और एथेलेटिक्स में एक शानदार क्रांति की शुरुआत
लेकिन, अगर 2021 को किसी एक एथलीट के लिए हमेशा याद किया जायेगा तो वो निसंदेह जैवलीन थ्रोअर नीरज चोपड़ा होंगे. एथेलेटिक्स में गोल्ड जीतकर नीरज ने ना सिर्फ मिल्खा सिंह के सपने को साकार किया, बल्कि भारत में एक क्रांति की शुरुआत भी कर दी है, जहां अचानक से ही हर गांव में हर बच्चा भाला फेंके की हसरत वैसी ही रखने लगा है जैसा कि बल्ला और गेंद थामे आपको हर बच्चा पिछले 3 दशकों से हर गली-मोहल्ले में दिखने को मिलता आ रहा है.
हां, ये ठीक है कि फिलहाल आपको ये तुलना थोड़ी अतिशयोक्ति का एहसास कराये लेकिन जिस तरह से एथलेटिक्स फेडरेशन हर गांव और हर स्कूल में इस खेल के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत दिख रही है उससे वो दिन भी दूर नहीं जब हर बच्चा विराट कोहली-बुमरहा बनने के साथ साथ साथ नीरज चोपड़ा भी बनने का अरमान दिल में रखें.
चोपड़ा की शख्सियत का खिलना भी 2021 की एक शानदार याद
विज्ञापन जगत पहला पैमाना होता है जहां पर किसी एथलीट की लोकप्रियता और उसके शानदार भविष्य का अंदाज़ा आपको मिल सकता है. अगर राहुल द्रविड़ के दिलचस्प cred विज्ञापन ने उन्हें दोबारा चर्चित किया तो चोपड़ा का उसी कंपनी के लिए किया गया विज्ञापन अपने आप में Advertising Gold से कतई कम नहीं था.
कैमरे के सामने चोपड़ा की सहजता ने दिखाया है कि वो महेंद्र सिंह धोनी की ही तरह यूथ ऑयकन बन सकते हैं जिनमें बनावटीपन कुछ भी नहीं है. चोपड़ा हिंदी में बात करतें हैं, आत्म-विश्वास का परिचय देते हैं और सोशल मीडिया पर भी अपनी भाषा को लेकर किसी तरह की हिचक नहीं दिखाते हैं. खेल के मैदान से बाहर चोपड़ा की शख्सियत का इस साल खिलना भी 2021 की एक शानदार याद है.
शायद कांस्य की इस संजीवनी से भविष्य के सोने की नींव पड़ी हो
बहुत कम मौक़े ऐसे आते हैं जब किसी खेल में तीसरे स्थान पर आना और कांस्य पदक का जश्न भी ऐसे मनाया जाय जैसे कि देश ने गोल्ड जीत लिया हो. ओलंपिक्स में भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने मैडल के सूखे आखिरकार 41 साल बाद ख़त्म ही कर दिया. यूं तो जिस खेल में जिस देश का इतिहास ऐसा स्वर्णिम रहा हो वहां एक कांस्य की तो कोई पूछ ही नहीं होस सकती थी, लेकिन साल दर साल और दशक दर दशक जिस तरह से भारतीय हॉकी ने निराशा झेली उसके चलते नई पीढ़ी में ये हताशा भी आ चुकी थी कि शायद अब हमें हॉकी में पदक जीतने के बारे में सोचना भी थोड़ देना चाहिए. लेकिन, मनप्रीत सिंह और उनके साथियों ने 2021 में भारतीय हॉकी को फिर से सपने देखने की एक अभूतपूर्व संजीवनी दी है. शायद कांस्य की इस संजीवनी से भविष्य के सोने की नींव पड़ी हो.
अगर साल 1971 ने भारतीय क्रिकेट टीम में विदेश में जीतने का विश्वास हमेशा के लिए मन में डाला तो 1983 ने हमें ये बताया कि भारत विश्व-विजयी भी बन सकता है. 2012 में लंदन ओंलपिक्स ने खेलों के महाकुंभ में सिर्फ हिस्सा लेने वाली सोच का ख़ात्मा किया तो 2021 ने इस बात की बुनियाद रखी है कि भारत में क्रिकेट और दूसरे खेल साथ-साथ ना चल सकतें है बल्कि एक-दूसरे के लिए प्रेरमा का सबब भी बन सकतें है जो इस साल की सबसे उम्दा बात है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विमल कुमार
न्यूज़18 इंडिया के पूर्व स्पोर्ट्स एडिटर विमल कुमार करीब 2 दशक से खेल पत्रकारिता में हैं. Social media(Twitter,Facebook,Instagram) पर @Vimalwa के तौर पर सक्रिय रहने वाले विमल 4 क्रिकेट वर्ल्ड कप और रियो ओलंपिक्स भी कवर कर चुके हैं.