किसान आंदोलन के 100 दिन: बस एक कॉल की दूरी

6 मार्च यानी आज दिल्ली में किसान आंदोलन के सौ दिन पूरे गए हैं

Update: 2021-03-06 08:26 GMT

6 मार्च यानी आज दिल्ली में किसान आंदोलन के सौ दिन पूरे गए हैं। सौ दिन के आंदोलन का नतीजा अब तक सिफर रहा। सरकार और आंदोलनकारी किसान महज एक फोन कॉल की दूरी पर हैं, लेकिन कॉल कनेक्ट नहीं हो रही है। आंदोलन में सियासत दोनों तरफ जारी है। 26 जनवरी को लाल किले पर तिरंगा अपमान की घटना के बाद एक बार फिर आंदोलनकारियों ने सौ दिन पूरे होने पर 6 मार्च को कुंडली-मानेसर-पलवल (केएमपी) एक्सप्रेस वे जाम कर शक्ति प्रदर्शन का निर्णय लिया है। हालांकि यह समर्थन जुटाने और समर्थन परखने की कोशिश है। शनिवार को दिल्ली-एनसीआर बॉर्डर के आंदोलनस्थलों पर जाम की तैयारी है। 8 मार्च को महिला दिवस पर महिलाओं की जुटान होगी। 9 मार्च को संयुक्त मोर्चा आगे की रणनीति तय करेगा।

महज एक कॉल की दूरी
सरकार अब भी अपने पुराने प्रस्तावों पर कायम है। सरकार की आंदोलनकारी नेताओं से और आंदोलनकारी नेताओं की गांव- खेत-खलिहान के किसानों से महज एक कॉल की दूरी है। आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि जब सरकार को जरूरत होगी, वार्ता के लिए खुद बुला लेगी। डटे किसान नेताओं की गांवों के किसानों से महज एक कॉल की दूरी है। जब बुलावा जाएगा, भारी संख्या में किसान पहुंच जाएंगे। खेती का समय है। बैसाखी से गेहूं की कटाई होगी। अप्रैल महीना किसानों के लिए अहम है। फसल के लिहाज से भी और सियासी फसल के नजरिए से भी। इससे पहले मार्च के आखिर में होली है। भाकियू डकौंदा के मंजीत सिंह धनेर का दावा है कि हम लंबे संघर्ष के लिए तैयार हैं। टिकरी समेत आंदोलनस्थल वाले बॉर्डर पर गर्मी से बचाव वाले पंडाल लगाए जा रहे हैं।
सियासत इधर भी
शुरू में आंदोलनकारियों ने दावा किया कि उनका सियासी कनेक्शन नहीं है, लेकिन अब सब जगजाहिर है। सभी चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेशों में आंदोलनकारियों ने भाजपा के खिलाफ मोर्चेबंदी की रणनीति बनाई है। 9 मार्च को संयुक्त मोर्चा की बैठक में आंदोलनकारी किसान संगठनों की चुनावी राज्यों के लिए ड्यूटियां तय होंगी। सरकार पहले से इसके लिए तैयार है। हाल के निकाय चुनावों के नतीजे में पंजाब और गुजरात के नतीजे का फर्क सामने है। आंदोलन प्रभावित हरियाणा में पंचायत चुनाव टल चुका है।
यूपी में पंचायत चुनाव का बिगुल बज चुका है। हरियाणा, यूपी, राजस्थान में ताबड़तोड़ किसान पंचायतें हो रही हैं। निकाय चुनाव से इतर बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा का शीर्ष नेतृत्व खुद किसान मुद्दे को उछाल रहा है। निशाने पर ममता बनर्जी हैं। वहां किसानों के सवाल त्रिकोण रूप ले चुका है। एक तरफ केंद्र सरकार राज्य सरकार को किसान विरोधी बता रही है। दूसरी तरफ आंदोलनकारी किसान केंद्र सरकार को किसान विरोधी ठहरा रही है। किसान मुद्दे की फसल किसकी जमीन पर लहलहाती है, यह नतीजे से साफ होगा।
भाजपा कहती है कि ममता की वजह से बंगाल के 70 लाख किसानों को पीएम सम्मान निधि का लाभ नहीं पहुंचा। केरल के वाम किले में किसान आंदोलन के वाम रिश्ते से केंद्र विरोधी हवा तेज हो सकती है। पहले किसान संगठनों ने सियासी नेताओं से छुआ-छूत जैसी दूरी बनाए रखी लेकिन अब यूपी में कांग्रेस की अलग, रालोद की अलग, सपा की अलग-अलग किसान पंचायतें होने लगी हैं। कहीं प्रियंका, कहीं जयंत तो कहीं अखिलेश नजर आ रहे है। इनके साथ कई किसान नेता। इसे यूपी विधानसभा चुनाव से पहले पंचायत चुनाव में आजमाने की तैयारी है।
सियासत उधर भी
दूसरी तरफ, आंदोलनकारी किसान संगठनों के बीच सियासत जारी है। पहले यह तय किया गया कि पंजाब में किसानों की महापंचायत नहीं होगी। पंजाब में न केवल किसान पंचायतें जारी रहीं बल्कि गैंगस्टर सिधाना ने पंचायत बुला ली। भाकियू उगराहा गुट ने पंचायतें कीं जिनके बैनर तले जेल में बंद विचारकों व दंगे के आरोपियों की रिहाई वाले पोस्टर लहराए गए। दागदार दामन वाला दीप सिद्धू कानून की गिरफ्त में है।
पंजाब के किसान संगठनों का कहना है कि दरअसल, पंजाब में महापंचायत की जरूरत नहीं। जहां जरूरत है, वहां पंचायतों के जरिए विस्तार दिया जा रहा है। हालांकि, अंदर की बात यह है कि 26 जनवरी की घटना के बाद एकाएक राकेश टिकैत के उभरने से पंजाब के किसान संगठनों में बेचैनी है। हालांकि, इसी बेचैनी को देखकर राकेश टिकैत बार-बार यह बयान दे रहे हैं कि न मंच बदला, न पंच, फैसले संयुक्त मोर्चे के बैनर तले ही होंगे।
हरियाणा में गुरनाम सिंह चढूनी ने हरियाणा के किसान संगठनों को मिलाकर अपना अलग मोर्चा बना रखा है। पंजाब के संगठन, यूपी के हरियाणा, राजस्थान के खाप और जाट के अलावा नरम और गरम विचार वाले किसान संगठन अलग-अलग सुर अलाप रहे हैं। हालांकि, संयुक्त मोर्चा की बागडोर संभालने वाले छह में से कई नेता मानते हैं कि अगर आंदोलनकारी किसान संगठन एक नहीं रहें तो नुकसान होगा। उधर, सरकार समर्थक कई किसान संगठन भी सुप्रीम कोर्ट के पैनल के सामने अपनी बात रख रहे हैं। किसानों की रायशुमारी भी जारी है। सुप्रीम कोर्ट पर भी नजरें टिकी हैं। ऐसे में सरकार और आंदोलनकारियों के बीच दूरी बरकरार है।
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