राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू की जीत को महिलाओं के सशक्तीकरण के जश्न के तौर पर भी मनाया जा सकता है, लेकिन यह मिठास अधूरी सी लगती है, जब कोई हाईकोर्ट अपने एक फैसले में कहता है कि महिलाओं के लिए मंगलसूत्र जैसे 'शादी के चिह्न' पहनना जरूरी है और उनकों न पहनना पति को 'सामाजिक प्रताड़ना' देने जैसा है और यह तलाक का कारण भी बन सकता है। फैसले में यह भी कहा गया कि पुरुषों के लिए कोई 'वैवाहिक चिह्न' नहीं है, इसलिए उन पर यह पाबंदी नहीं हो सकती।
एक और खबर हैरान करने वाली मिली कि एक सर्वे में कर्नाटक के लोगों ने महिलाओं के साथ होने वाली 'पारिवारिक हिंसा' या पति द्वारा पत्नी को पीटने को गैर-वाजिब नहीं बताया। उनका मानना है कि यह अच्छे परिवार के लिए जरूरी है। क्या राष्ट्रपति पर किसी वर्ग विशेष की नुमाइंदगी सिर्फ राजनीतिक धारणा या संदेश भर के लिए होती है, इसका समाज की बेहतरी या ताकत से सीधा रिश्ता नहीं होता? किसी हद तक यह बात सही हो सकती है, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि इस तरह की नुमाइंदगी भले ही मोटे तौर पर वोटबैंक को साधने के लिए की गई हो, लेकिन यह उस वर्ग के आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव से जुड़ी होती है और उस वर्ग को एक नई ताकत भी देती है या निराशा व पिछडे़पन से उबारने का काम करती है। देश में दो-दो दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन और रामनाथ कोविंद ने भले ही सीधे तौर पर दलित समाज के उत्थान के लिए कोई बड़ा काम न किया हो, लेकिन सर्वोच्च सांविधानिक पद पर उनके बैठने से दलित समाज को यह भरोसा जरूर कायम हुआ है कि अब वे कमजोर नहीं हैं। इसमें कहीं घोड़े पर से दलित दूल्हे को उतारने की घटना को अपवाद के तौर लिया जा सकता है। तीन-तीन मुस्लिम राष्ट्रपति होने से मुसलमानों की एक बड़ी आबादी का पिछड़ापन भले ही खत्म न हुआ हो, लेकिन इसने उन लोगों का मुंह जरूर बंद किया होगा, जो हिन्दुस्तान में मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक होने की बात करते रहते हैं। आम मुसलमान समझता है कि हिन्दुस्तान में उसके हक और बराबरी को कोई नहीं रोक सकता। यही बात महिला प्रतिनिधियों को लेकर कही जा सकती है। पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और एक जमाने में एक साथ पांच-पांच राज्यों में महिला मुख्यमंत्री, कई राज्यों में महिला राज्यपाल व बहुत से राजनीतिक दलों के अध्यक्ष पद पर महिलाओं के बैठने से आम महिला को ताकत जरूर मिली है। वह दिन दूर नहीं लगता, जब संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने की बात पुरुष प्रधान सामाजिक और राजनीतिक नेताओं को माननी ही पड़ेगी, क्योंकि देर भले हो जाए, अब उसे मंजिल तक पहुंचने से रोका नहीं जा सकता।
महिलाओं के कामकाजी होने को लेकर हमारे घर के दरवाजे भले ही खुले हों, लेकिन इसका एक बड़ा कारण हमारी आर्थिक जरूरतें हैं। इसमें भी पत्नी का पति के मुकाबले ज्यादा कमाना या ज्यादा पढ़ा-लिखा होना, हमें हजम नहीं होता है, क्योंकि हमें उसके तेवर बर्दाश्त नहीं होते।
इस राष्ट्रपति चुनाव के दौरान विपक्ष के साझा उम्मीदवार रहे यशवंत सिन्हा की योग्यता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, वह एक बेहतर राजनेता और कुशल प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं। सिन्हा ने खुद भी कहा कि यह चुनावी लड़ाई दो व्यक्तियों के बीच नहीं, दो विचारधाराओं के बीच है। सिन्हा ने जब 'अंतरात्मा की आवाज' पर वोट देने की बात की, वहां तक भी ठीक था, लेकिन उन्होंने जब 'रबर स्टांप' राष्ट्रपति होने का सवाल उठाया, तो आपत्ति दर्ज कराने की जरूरत लगी। क्या यह सवाल इसलिए उठाया गया, क्योंकि मुर्मू महिला और आदिवासी हैं? इस मौके पर मैं उन राष्ट्रपति या दूसरे लोगों का जिक्र कर आदिवासी महिला राष्ट्रपति के जीत के जश्न का स्वाद खराब नहीं करना चाहता, जिन्होंने सांविधानिक मर्यादाओं तक को ताक पर रख दिया। दुनिया के किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के सबसे बड़े आवास रायसीना हिल पर बने राष्ट्रपति भवन में ऐसे बहुत से किस्सों की फाइलें होंगी, लेकिन एक ताकतवर समाज से जुडे़ किसी पुरुष उम्मीदवार के लिए हम ऐसे शक पैदा नहीं करते हैं! SOURCE-LIVEHINDUSTAN