मेरे लिए मुख्तार को याद करना, ज़िंदादिली की एक सदी को याद करना है. मुख्तार सिर्फ बैण्ड मास्टर नहीं थे. शहर की सांस्कृतिक, राजनैतिक गतिविधियों में उनकी सक्रिय हिस्सेदारी होती थी. जब तक मैं बनारस में था, तो मुख्तार से अक्सर ही मुलाकात होती थी. मेरी बारात के मुख्य बैण्ड मास्टर मुख्तार ही थे. बिस्मिल्लाह खां के बेटे जामिन हुसैन खां की शहनाई के साथ, वे भी इस घटना के गवाह थे. मैं जब भी बनारस जाता तो पहले कालभैरव दर्शन के लिए जाना होता. कालभैरव काशी के कोतवाल हैं. काशी विश्वनाथ का दर्शन उनके दर्शन के बिना अधूरा रहता है. मेरे लिए कालभैरव के दर्शन से पहले मुख्तार भाई का दर्शन अनिवार्य था क्योंकि कालभैरव के नुक्कड़ पर ही पंजाब बैण्ड की दुकान थी मुख्तार हर वक्त वहीं तशरीफ रखते थे. कालभैरव जाने से पहले रास्ते में ही मुख्तार की आवाज कानों में पड़ती "भईया चाय पीलअ." मैं हर बार उनसे कहता "लौट के." लौटते वक्त चाय के साथ गोल कचौड़ी भी होती. यह मुख्तार की मोहब्बत थी. ये सिलसिला कोई तीस बरस तक चला.
कोरोना महामारी में ऑक्सीजन न दिला सका शहर
हर सिलसिले का एक अंत होता है, सो इसका भी हुआ मगर तकलीफ की एक अजीब सी कसक के साथ. जिस व्यक्ति ने अपने फेफड़ों की हवा से ट्रम्पेट फूंककर हज़ारों घंटे लोगों को अपने संगीत से झुमाया, आनंद रस से सराबोर किया, लाखों पांवों को थिरकने के लिए मजबूर किया, उनके मांगलिक कार्यों में चार चांद लगाए, उसी मुख्तार के फेफड़े ऑक्सीजन के बिना बंद हो गए. मुख्तार कोविड की दूसरी लहर में बिना ऑक्सीजन के दम तोड़ गए. उन्हें कोरोना हुआ, गंभीर हालत में आक्सीजन की तलाश में सड़कों पर भटकते रहे पर उन्हे प्राणवायु नहीं मिली. जब तक मुझे सूचना मिली, स्थिति नियंत्रण के बाहर थी. मैंने अस्पतालों को फ़ोन करना शुरू किया. बंदोबस्त सुनिश्चित करने में एक घंटे लगे मगर तब तक वो दुनिया छोड़ गए. यह बात शायद 15 अप्रैल की होगी. ये अपराध बोध आज भी मेरे सिर पर है. मेरे घर के पास ही पिपलानी कटरा वाले क़ब्रिस्तान में वो दफ़न हैं. कोविड के बाद जब बनारस गया तो वहां जाकर मैंने उनसे माफी मांगी. "मुख्तार भाई आप ताउम्र मेरे लिए बाजे में हवा फूंकते रहे और मैं आपके उन्हीं फेफड़ों में आक्सीजन न फूंक सका." ये तकलीफ मुझे भीतर तक सालती रही. इस दफा कालभैरव के दर्शन भी उनके बगैर हुए. लेकिन इस पूरी यात्रा में उनकी यादें मेरे कन्धे पर सवार रहीं. शायर मोहम्मद अलवी के मुताबिक, "कोई बैण्ड बाजा सा कानों में था, अजब शोर ऊंचे मकानों में था. मुझे मार के वो भी रोता रहा, तो क्या वो भी मेरे मेहरबानों में था?"
मुलायम सिंह यादव को मानते थे अपना नेता
मुख्तार समाजवादी तबीयत के आदमी थे. मजलूमों और पसमान्दा समाज की फिक्र करते थे. पांच भाइयों में सबसे बड़े मुख्तार उस वक्त बैण्ड बाजे के कारोबार में आए, जब बनारस में बैण्ड बजाने का काम सिर्फ मेहतर किया करते थे. भगवान दास और झक्कड़, बनारस के दो पुराने और नामी मेहतर बैण्ड मास्टर थे. उनकी संततियां आज भी पानदरीबा में रहती हैं. मुख्तार के पिता और चाचा कानपुर से नए जमाने का बैण्ड सीख कोई अस्सी साल पहले बनारस आए और पंजाब बैण्ड की स्थापना की. पिता जी ही असली बैण्ड मास्टर थे. उससे पहले मुख्तार भाई के दादा झन्ना उर्फ हबीबुल्लाह और पन्ना उर्फ बिस्मिल्लाह अंग्रेजी हुकूमत के दौरान काशीराज में 'ताशा' और 'रोशन चौकी' बजाते थे. बनारस में झन्ना-पन्ना की रौशन चौकी खासी प्रसिद्ध थी.
मुख्तार भाई का बैण्ड हर शिवरात्रि की शिव बारात का मुख्य आकर्षण होता था. शिव बारात सिर्फ़ बनारस में ही निकलती है. इसमें भगवान शिव के सारे गण भूत, पिशाच, पागल, नशेड़ी, नंग, ध़ड़ंग, मतवाले, लंगड़े, लूले, भिखारी, रईस सभी शामिल रहते हैं. बारात में नाना प्रकार के वाद्ययंत्र और साज भी शामिल होते हैं. शिव की यह बारात लोक में महादेव की व्याप्ति की मिसाल है जो उन्हें जनवादी भगवान बनाता है. वर्षों तक मुख्तार भाई का बैण्ड शिव बारात का नेतृत्व करता था. पंजाब बैण्ड गुरुनानक जयंती पर निकलने वाली शोभा यात्रा में भी बजता था. 1984 के दंगों के बाद न जाने क्यों बैण्ड बंद हो गया ? मुख्तार ये काम पैसों के लिए नहीं बल्कि बनारसी सद्भाव और मस्ती के कारण करते थे. बनारस का ऐसा कोई बड़ा आयोजन और कोई बड़ा घर नहीं था, जिसमें उनका बैण्ड न बजता हो.
इस लिहाज़ से मुख्तार सार्वजनिक व्यक्ति थे. मुलायम सिंह यादव को अपना नेता मानते थे. मुलायम सिंह यादव जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो के.डी. सिंह बाबू स्टेडियम में हुए शपथ ग्रहण समारोह में बैण्ड मुख्तार भाई का ही बजा था. इसके लिए वे बनारस से ख़ास तौर पर बुलाए गए. समारोह में शपथ लेने वाले सभी मंत्रियों को मुख्तार भाई ने पगड़ी बांधी थी. बाद में शायद पार्टी में पदाधिकारी भी बने.
मुख्तार भाई मेरे लिए एक इतिहास की दस्तक थे
भारत में 'ब्रास बैण्ड' उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में आया. हालांकि ब्रास बैण्ड की शुरुआत मिस्र से हुई. शुरू में यह लकड़ी और बाद में पीतल से बनने लगे. तांबे और चांदी से बने 'ट्रम्पेट' का भी जिक्र इतिहास में मिलता है. मिस्र के राजा 'तूतनखामेन' की कब्र से चांदी और कांसे की ट्रम्पेट यानी 'तुरही' मिली थी. धातु से बनी ट्रम्पेट 1500 ईसा पूर्व की मानी जाती है. चीन, दक्षिण अफ्रीका, स्कैंडिनेविया और एशिया में ट्रम्पेट मिलती है. शुरुआत में ब्रास उपकरण कांस्य या जानवरों की सींग से बनते थे.
यूनान यानि ग्रीस तक इस इतिहास के सिरे मिलते हैं. ग्रीस के Salpinx यानी वो ट्रम्पेट जो घुमावदार न हो, सीधे बनाए जाते थे. शोफ़र एक प्राचीन हीब्रू ब्रासबैण्ड है जो जानवर के सींग से बना होता है, जिसका उपयोग आज भी यहूदी समारोहों में किया जाता है. पुनर्जागरण के दौर में (14वीं से 17वीं शताब्दी में) पीतल के उपकरण विकसित होने लगे थे जो आज के आधुनिक उपकरणों से मिलते जुलते हैं. लगभग 1400-1413 के आसपास सबसे पहले S- आकार की ट्रम्पेट बनी. साल 1597 में इटली के संगीतकार Giovanni Gabriel ने वेनिस में ब्रास बैण्ड से पहली धुन तैयार की थी जो "Sonate pian'forte के नाम से मशहूर हुई." 17वीं शताब्दी में इस संगीत उपकरण की डिजाइन में कुछ नए और बड़े बदलाव हुए. 18वीं शताब्दी आते-आते ब्रास बैण्ड बजाने वाले बैण्ड समूह बनने लगे. दुनिया का पहला सिविल ब्रास बैण्ड ब्रिटेन में साल 1809 में बना. इसे "Stalybridge Old Band" के नाम से जाना गया.
मेरी दिलचस्पी बैंड बाजा के भारतीय इतिहास को जानने की भी थी. इस पर ब्रिटिश लेखक ग्रेगरी डी. बूथ की लिखी किताब "Brass Baja: Stories from the World of Indian Wedding Bands" ने मदद की. 19वीं सदी की शुरुआत से भारतीय शादियों में जश्न मनाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती गयी. तुरही, शहनाई, और यूरोपीय ब्रास बैण्ड जैसे वाद्ययंत्रों को बारात में शामिल करने का चलन बढ़ा. इन वाद्ययंत्रों का विवाह समारोह में इस्तेमाल दरअसल अंग्रेज़ों का प्रभाव था. जैसे-जैसे उपनिवेशीकरण ने अपनी जड़ें जमाईं, शादी से जुड़ी कई प्रथाएं मसलन रिसेप्शन और शादी के निमंत्रण कार्ड की ब्रिटिश प्रथा भारतीयों में घर कर गई। इस वक्त भारत में कोई आठ हज़ार से ज़्यादा बैण्ड हैं.
ट्रेवर हर्बर्ट और हेलेन बारलो ने अपनी किताब "Music & the British Military in the Long Nineteenth Century" में भारत में अंग्रेजी हुकूमत के बैंड का ब्योरा दिया है। वे लिखते हैं "ब्रिटिश सेना ने स्थानीय लोगों में रौब ग़ालिब करने के लिए भारत में मार्चिंग ब्रास बैण्ड की शुरुआत की. ब्रिटिश शासकों ने इसके जरिए अपनी शाही ताकत भी दिखाई. दिलचस्प बात यह है कि इम्पीरियल मिलिट्री बैण्ड के कुछ संगीतकारों ने कुछ भारतीय बैण्डों को ट्रेनिंग भी दी. ये ब्रिटिश बैण्ड वास्तव में कभी किसी बारात के साथ नहीं चलते थे. वे एक घेरे में बैठ कर संगीत बजाते थे. धीरे-धीरे इनका भी भारतीयकरण हो गया और ये बारात के साथ चलने लगे.
मुख्तार भाई के पुरखे भी काशी नरेश के यहां ताशा बजाते थे
बैण्ड आने से पहले मुख्तार भाई के पुरखे भी काशी नरेश के यहां ताशा बजाते थे. तब ताशा राजघरानों का राज्य वाद्य होता था. ढोल और ताशा भारतीय वाद्य हैं. ताशा लकड़ी, धातु, चमड़े, कपड़े से बना एक ताल वाद्य है. जबकि ढोल तो आप सब जानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में पीट कर बजाने वाला वाद्ययंत्र है. ढोल को ही अरबी में 'नक़्क़ारा' कहते हैं. राजदरबारों के बाहर नक़्क़ारा होता था. हिन्दी का 'नगाड़ा' इसी का देशी रूप है. 150 ईसा पूर्व सांची के स्तूप में में बनी कलाकृतियों में कलाकारों को ढोल ताशा बजाते देखा जा सकता है. ढोल ताशे वाले समूह में तीन चार बड़े बड़े ढोल होते थे. इस टीम में दो ताशा और दो झॉझ होते थे. ताशा मिस्र और झांझ ईरान से आया था. तीनों मिलकर स्वरों के उतार चढ़ाव से जो लयकारी पेश करते हैं, वहीं इसकी ख़ासियत थी. उससे कुछ इस तरह की आवाज आती थी, "कड़क-कड़क के झय्यम्-झय्यम्." अब्दुल हकीम शरर् की किताब 'गुजिश्ता लखनऊ' में ज़िक्र है कि सातवीं मुहर्रम के जुलूस में नवाब वाजिद अली शाह भी गले में ताशा डाल कर बजाया करते थे.
मशकबीन और बैगपाइप
ताशे का ही साथी दूसरा बाजा रोशन चौकी था. मेरी दादी इसे 'रब्बी-डब्बी ,रौशन चौकी' कहा करती थीं. यह पुराना साज था. यह ईरान के शेख़ उर्रईस इब्ने सीना का ईजाद था। रोशन चौकी में दो शहनाई वादक भी होते थे. एक तबलची होता था जिसकी कमर में ही दो तबले बंधे होते थे. तबले लय को क़ायम रखते और शहनाई सुर को. लय के उतार चढ़ाव के लिए एक मशकबीन होता था जिसे अंग्रेज़ी में बैगपाइप कहते हैं. बैगपाइप स्काटलैण्ड का राष्ट्रीय वाद्य है. ब्रिटिश किंग एडवर्ड-VII और एडवर्ड-VIII, दोनों बैगपाइप बजाने के शौक़ीन थे. बैगपाइप में चमड़े के एक थैले पर पांच पाइप लगे होते हैं. एक पाइप से चमड़े के थैले में मुंह से फूंक कर हवा भरी जाती है. दूसरे पाइप का बांसुरी की तरह इस्तेमाल होता है. बाक़ी की तीन पाइप सहायक नाद उत्पन्न करते हैं. चमड़े का थैला मशक की शक्ल का होता है इसलिए उसे 'मशकबीन' भी कहते हैं.
इतिहासकारों का कहना है कि पहला बैगपाइप का प्रमाण एक हित्ती नक़्क़ाशी के ज़रिए कोई 1000 ईसा पूर्व मिला था. रोमन इतिहासकार सुएटोनियस ने् दूसरी शती में रोमन सम्राट नीरो को ऐसा ही वाद्य बजाते चित्रित किया था. इसे बैगपाइप बताया गया है. नीरो की बैगपाइप बजाती छवि तब के सिक्कों पर भी मिलती है. ब्रिटिश हुकूमत के दौर में जिस बैगपाइप को अंग्रेज़ स्काटलैण्ड से यहां लाए, उसे ही मशकबीन, मशकबाजा, बीनबाजा और मोरबीन के रूप में जाना जाने लगा. ताशे के साथ मशकबीन और शहनाई रौशनचौकी के ख़ास अंग थे रौशन चौकी दरबारी बाजा था. राजमहल के चारों ओर रात में गश्त के साथ रौशनचौकी बजा करती थी. इसे आनंदप्रद बाजा माना जाता था. इसके दो मक़सद थे . यह एक तो राजा को सुलाने का संगीत था और प्रजा को साथ ही गश्त का अहसास होता रहता था. कवि रघुबीर सहाय ने इन्हीं बैण्ड वालो के लिए शायद लिखा था.
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है
बिटिया की शादी में मुझसे बड़ी गलती हुई
मुख्तार भाई ने मेरे और मेरे भाई साहब की शादी में बैण्ड बजाया था. मेरी बारात में तो उन्होंने आगे की बुकिंग इसलिए कैंसिल कर दी कि उस बारात में उनके नेता मुलायम सिंह यादव आए थे. मेरा उनसे अपनापा इसके बाद और गाढ़ा हुआ. ये सिलसिला बाद में मित्रता में बदल गया. उसके बाद हर बार वह मुझे ताकीद कराते कि अब तो बच्चों की शादी में मुझे बजाना है. बिटिया की शादी में मुझसे बड़ी गलती हुई. बनारस से सब आए. बनारस से पंडित जी, भोजन का इंतजाम करने के लिए हलवाई और मोछू दाना वाले तक, पर मैं मुख्तार भाई को भूल गया. दिमाग से उतर गया. मुख्तार को बुरा लगा. जब मिले तो शिकायत कि "मुझे ही भूल गए. बनारस से हजारों लोग गइलन, हमई भारी रहलीं. वह मेरी भी बेटी थी. मैं आपसे कोई खर्चा भी नहीं मांग रहा था. मेरे साथ यह व्यवहार क्यों?" मैंने माफी मांगी. मुख्तार दिमाग से उतर गए थे. "चलिए लड़के की शादी में आप कई दिन तक बजाइएगा." मैने उन्हें आने वाले वक्त का वचन दिया. मगर ये वचन अब अधूरा रह गया. मुख्तार के असमय जाने से उन्हें न बुला पाने की मेरी आत्मग्लानि और बढ़ गई. पर किया क्या जा सकता था? हम यहीं लाचार हो जाते हैं. मुख्तार भाई मेरे लिए उत्सव का प्रतीक थे. उनकी फनकारी किसी भी उत्सव में जान फूंक देती थी. जब भी किसी बैंड की धुन मेरे कानों में पड़ती है, लगता है, कि मुख्तार भाई सामने खड़े हैं. झूमते हुए, बजाते हुए, जिंदादिली में गाते हुए. मौत ने उनका शरीर छीन लिया है पर रूह आज भी किसी बैंड की धुन पर करवट ले रही है. मानो मुख्तार भाई, अपनी मौत के बाद भी इस नश्वर संसार को अपने बैंड की धुन में नचा रहे हों. उन्हे प्रणाम .