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इन पूर्वजों ने इस आध्यात्मिक सत्य को बहुत गहराई तक पहचाना और जीवन की गहन समीक्षा की। उन्होंने पाया कि माँ के पेट में आने से लेकर चिता में समर्पण होने तक, उसके भी बाद मरणोत्तर विराम तक अनेक महत्वपूर्ण मोड़ आते है, यदि उनमें जीवात्मा को सम्हाला और सँवारा न जाये,
तो मनुष्य अपनी अस्मिता का अर्थ समझना तो दूर, पीड़ा और पतन की ओर निरंतर अग्रसर होता हुआ नरकीटक, नरवानर, नरपामर बनता चला जाता है। इन महत्वपूर्ण मोड़ों पर सजग-सावधान करने और उँगली पकड़कर सही रास्ता दिखाने के लिए हमारे तत्वेत्ता,
मनीषियों ने षोडश संस्कारों का प्रचलन किया था। चिन्ह-पूजा के रूप में प्रचलन तो उनका अभी भी है पर वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक बोध Scientific, psychological and spiritual understanding और प्रशिक्षण के अभाव वे मात्र कर्मकाण्ड और फिजूलखर्ची बनकर रह गये हैं।
कुछ संस्कार तो रस के कुपित हो जाने पर उसके विष बन जाने की तरह उलटी कुत्सा भड़काने का माध्यम बन गये हैं। विशेष रूप स विवाहों में तो आज यही हो रहा है। यों मनुष्य माटी का खिलौना है। पाश्चात्य सभ्यता तो उसे 'सोशल एनीमल' अर्थात् 'सामाजिक पशु' तक स्वीकार करने में संकोच नहीं करती, पर जिस जीवन को जीन्स और क्रोमोंजोम समुच्चय के रूप में वैज्ञानिकों ने भी अजर-अमर और विराट् यात्रा के रूप में स्वीकार कर लिया हो, It has been accepted as a huge journey,
उसे उपेक्षा और उपहास में टालना to ignore and ridicule him किसी भी तरह की समझदारी नहीं है। कम से कम जीवन ऐसा तो हो, जिसे गरिमापूर्ण कहा जा सके। जिससे लोग प्रसन्न हों, जिसे लोग याद करें, जिससे आने वाली पीढ़ियाँ प्रेरणा लें, ऐसे व्यक्तित्व जो जन्म-जात संस्कार और प्रतिभा-सम्पन्न हों, उँगलियों में गिनने लायक होते हैं।
अधिकांश तो अपने जन्मदाताओं पर वे अच्छे या बुरे जैसे भी हों, उन पर निर्भर करते हैं, वे चाहे उन्हें शिक्षा दें, संस्कार दें, मार्गदर्शन दें, या फिर उपेक्षा के गर्त में झोंक दें, पीड़ा और पतन में कराहने दें।
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Usha dhiwar
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