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नृसिंह जयंती व्रत वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है।
नृसिंह जयंती व्रत वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है। इस वर्ष 25 मई 2021, मंगलवार को यह पर्व मनाया जाएगा। इस दिन भगवान श्री नृसिंह ने खंभे को चीरकर भक्त प्रह्लाद की रक्षार्थ अवतार लिया था।
पुराणों के अनुसार इस पावन दिवस को भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार धारण किया था। इसी वजह से यह दिन भगवान नृसिंह के जयंती रूप में बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है। जानिए इस दिन कैसे करें पूजन-
पूजन विधि एवं मंत्र-
* इस दिन प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में सोकर उठें।
* संपूर्ण घर की साफ-सफाई करें।
* इसके बाद गंगा जल या गौमूत्र का छिड़काव कर पूरा घर पवित्र करें।
तत्पश्चात निम्न मंत्र बोले-
भगवान नृसिंह के पूजन का मंत्र -
नृसिंह देवदेवेश तव जन्मदिने शुभे।
उपवासं करिष्यामि सर्वभोगविवर्जितः॥
इस मंत्र के साथ दोपहर के समय क्रमशः तिल, गोमूत्र, मृत्तिका और आंवला मल कर पृथक-पृथक चार बार स्नान करें। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए।
पूजा के स्थान को गोबर से लीपकर तथा कलश में तांबा इत्यादि डालकर उसमें अष्टदल कमल बनाना चाहिए।
अष्टदल कमल पर सिंह, भगवान नृसिंह तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात वेदमंत्रों से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए।
रात्रि में गायन, वादन, पुराण श्रवण या हरि संकीर्तन से जागरण करें। दूसरे दिन फिर पूजन कर ब्राह्मणों को भोजन कराएं।
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इस दिन व्रती को दिनभर उपवास रहना चाहिए।
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सामर्थ्य अनुसार भू, गौ, तिल, स्वर्ण तथा वस्त्रादि का दान देना चाहिए।
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क्रोध, लोभ, मोह, झूठ, कुसंग तथा पापाचार का त्याग करना चाहिए।
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इस दिन व्रती को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
भगवान नृसिंह के बीज मंत्र-
- ॐ श्री लक्ष्मीनृसिंहाय नम:।।
नृसिंह अवतार की कथा- जब हिरण्याक्ष का वध हुआ तो उसका भाई हिरण्यकशिपु बहुत दुःखी हुआ। वह भगवान का घोर विरोधी बन गया। उसने अजेय बनने की भावना से कठोर तप किया। तप का फल उसे देवता, मनुष्य या पशु आदि से न मरने के वरदान के रूप में मिला। वरदान पाकर तो वह मानो अजेय हो गया।
हिरण्यकशिपु का शासन बहुत कठोर था। देव-दानव सभी उसके चरणों की वंदना में रत रहते थे। भगवान की पूजा करने वालों को वह कठोर दंड देता था और वह उन सभी से अपनी पूजा करवाता था। उसके शासन से सब लोक और लोकपाल घबरा गए। कहीं ओर कोई सहारा न पाकर वे भगवान की प्रार्थना करने लगे। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान नारायण ने हिरण्यकशिपु के वध का आश्वासन दिया।
उधर दैत्यराज का अत्याचार दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था। यहां तक कि वह अपने ही पुत्र प्रहलाद को भगवान का नाम लेने के कारण तरह-तरह का कष्ट देने लगा। प्रहलाद बचपन से ही खेल-कूद छोड़कर भगवान के ध्यान में तन्मय हो जाया करता था। वह भगवान का परम भक्त था। वह समय-समय पर असुर-बालकों को धर्म का उपदेश भी देता रहता था।
असुर-बालकों को धर्म उपदेश की बात सुनकर हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हुआ। उसने प्रहलाद को दरबार में बुलाया। प्रहलाद बड़ी नम्रता से दैत्यराज के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर दैत्यराज ने डांटते हुए कहा- 'मूर्ख! तू बड़ा उद्दंड हो गया है। तूने किसके बल पर मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?'
इस पर प्रहलाद ने कहा- 'पिताजी! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोटे-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान ने ही अपने वश में कर रखा है। वह परमेश्वर ही अपनी शक्तियों द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप अपना यह भाव छोड़ अपने मनको सबके प्रति उदार बनाइए।'
प्रहलाद की बात को सुनकर हिरण्यकशिपु का शरीर क्रोध के मारे थर-थर कांपने लगा। उसने प्रहलाद से कहा- 'रे मंदबुद्धि! यदि तेरा भगवान हर जगह है तो बता इस खंभे में क्यों नहीं दिखता?' यह कहकर क्रोध से तमतमाया हुआ वह स्वयं तलवार लेकर सिंहासन से कूद पड़ा। उसने बड़े जोर से उस खंभे को एक घूंसा मारा। उसी समय उस खंभे के भीतर से नृसिंह भगवान प्रकट हुए। उनका आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य के रूप में था। क्षणमात्र में ही नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु को अपने जांघों पर लेते हुए उसके सीने को अपने नाखूनों से फाड़ दिया और उसकी जीवन-लीला समाप्त कर अपने प्रिय भक्त प्रहलाद की रक्षा की।
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