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धर्म-अध्यात्म
जानिए हिन्दू पौराणिक में मन्दिर निर्माण का इतिहास, कब और कैसे हुआ
Usha dhiwar
25 Jun 2024 6:22 AM GMT
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हिन्दू पौराणिक में मन्दिर निर्माण का इतिहास:- History of temple construction in Hindu mythology
गुप्तकाल (चौथी से छठी शताब्दी) में मन्दिरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृष्टि गोचर होता है। पहले लकड़ी के मन्दिर बनते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और ईंट से मन्दिर बनने लगे। मूल रूप से हिन्दू मन्दिरों की शैली बौद्ध मन्दिरों से ली गयी होगी जैसा- कि उस समय के पुराने मन्दिरो में मूर्तियों को मन्दिर के मध्य में रखा होना पाया गया है और जिनमें बौद्ध स्तूपों की भांति परिक्रमा मार्ग हुआ करता था। गुप्तकालीन बचे हुए लगभग
सभी मन्दिर अपेक्षाकृत छोटे हैं,जिनमें काफी मोटा और मजबूत कारीगरी किया हुआ All the temples are relatively small, with very thick and sturdy workmanship. एक छोटा केन्द्रीय कक्ष है, जो या तो मुख्य द्वार पर या भवन के चारों ओर बरामदे से युक्त है। गुप्तकालीन आरम्भिक मन्दिर, उदाहरणार्थ सांची के बौद्ध मन्दिरों की छत सपाट है; तथापि मन्दिरों की उत्तर भारतीय शिखर शैली भी इस काल में ही विकसित हुयी और शनै: शनै: इस शिखर की ऊंचाई बढती रही। 7वीं शताब्दी में बोध गया में निर्मित बौद्ध मन्दिर की बनावट और ऊंचा शिखर गुप्तकालीन भवन निर्माण शैली के चरमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। भारत के प्रसिद्ध मन्दिर एवम मठ जैसे-उज्जैन का महाकालेश्वर,ओमकारेश्वर,जगन्नाथ पुरी एवम महाभारत काल से जुड़ी मान्यताओं में खाटू श्याम जी का मन्दिर आज ख्याति प्राप्त मन्दिर हैं।
मन्दिरों का अस्तित्व और उनकी भव्यता गुप्त राजवंश के समय से देखने को मिलती है The grandeur is visible from the time of Gupta dynasty। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गुप्त काल से हिन्दू मन्दिरों का महत्त्व और उनके आकार में उल्लेखनीय विस्तार हुआ तथा उनकी बनावट पर स्थानीय वास्तुकला का विशेष प्रभाव पड़ा। उत्तरी भारत में हिन्दू मन्दिरों की उत्कृष्टता उड़ीसा तथा उत्तरी मध्यप्रदेश के खजुराहो में देखने को मिलती है।
उड़ीसा के भुवनेश्वर में सिथत लगभग 1000 वर्ष पुराना लिंगराजा का मन्दिर वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। हालांकि, इसका शिखर इसके आरम्भिक दिनों में ही टूट गया था और आज केवल प्रार्थना स्थल ही शेष बचा है। काल और वास्तु के दृष्टिकोण से खजुराहो के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मन्दिर 11वीं शताब्दी में बनाये गये थे। गुजरात और राजस्थान में भी वास्तु के स्वतन्त्र शैली वाले अच्छे मन्दिरों का निर्माण हुआ किन्तु उनके अवशेष उड़ीसा और खजुराहो की अपेक्षा कम आकर्षक हैं But their remains are less attractive than those of Orissa and Khajuraho। प्रथम दशाब्दी के अन्त में वास्तु की दक्षिण भारतीय शैली तंजौर (प्राचीन नाम तंजावुर) के राजराजेश्वर मन्दिर के निर्माण के समय अपने चरम पर पहुंच गयी थी।
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Usha dhiwar
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