धर्म-अध्यात्म

आखिरत की फ़िक्र है 17वां रोजा

Apurva Srivastav
29 April 2021 9:31 AM GMT
आखिरत की फ़िक्र है 17वां रोजा
x
सत्रहवां रोजा आखिरत की फ़िक्र है

मगफिरत (मोक्ष) के अशरे के आईने में देखें तो सत्रहवां रोजा आखिरत की फ़िक्र है, अल्लाह का जिक्र है। इस बात को इस तरह समझना होगा-किसी भी शख्स के सामने मोटे तौर पर दो ही तरह से फिक्र होती है, दुनियावी (सांसारिक) और दीनी (धार्मिक)।

दुनियादारी के दलदल से निकलकर दीनदारी के जरिए रूहानियत की फिक्र (अध्यात्मिक चिंतन) ही दरअसल आखिरत (अंतिम समय/भविष्य जिसका संबंध ईश्वर से है) की फिक्र है। आखिरत की फिक्र अस्ल में मगफिरत की फिक्र (मोक्ष का चिंतन) है, रोजा जिसका रूहानी रास्ता है।
सत्रहवां रोजा चूंकि रमजान माह के मगफिरत के अशरे का हिस्सा है इसलिए आखिरत की फिक्र के साथ-साथ मगफिरत की मंज़िल पर पहुंचने के लिए अल्लाह के जिक्र में रोजादार को मशगूल (व्यस्त) रखने का सिलसिला भी है। इसको और साफ तौर पर यों समझा जा सकता है कि माहे-रमजान रहमत का दरिया है जिसमें से मगफिरत का मोती खोजने के लिए रोजा एक जरिया है।
यानी रोजा रूहानी गोताखोरी भी है। दरिया या समन्दर में अंदर तक खोजने वाले के लिए यानी गोताख़ोर के लिए एक मख़्सूस (विशिष्ट) पैरहन (परिधान) होता है जिससे उसकी गोताखोरी आसान हो जाती है। यानी गोताखोर के लिए अलग लिबास जरूरी है। तो समझ लीजिए कि अल्लाह का जिक्र ही वो पैरहन या लिबास है जिससे रोजादार यानी रूहानी गोताखोर मगफिरत का मोती तलाश लेता है।
कुरआन-पाक के बाईसवें पारे (अध्याय-22) के सूरह अल अहजाब की 41वीं और 42वीं आयत में हुक्म है- 'ऐ ईमान वालों! अल्लाह का बहुत जिक्र किया करो। सुबह-शाम उसकी पाकी (पवित्रता) बयान करते रहो।'


Next Story