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नेतृत्व का डेढ दशक का सियासी प्रयोग हुवा नाकाम, लगभग बिखर गई राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड

Apurva Srivastav
25 Jan 2022 3:30 PM GMT
नेतृत्व का डेढ दशक का सियासी प्रयोग हुवा नाकाम, लगभग बिखर गई राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड
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कांग्रेस छोड़ने वाले नई पीढी के नेताओं की ताजा कड़ी में शामिल आरपीएन सिंह के पाला बदलने से यह लगभग साफ हो गया है कि दिग्गजों को असहज- नाराज करने की कीमत पर कांग्रेस को 'नेक्स्ट जेनरेशन पार्टी' बनाने का नेतृत्व का डेढ दशक का सियासी प्रयोग नाकाम साबित हुआ है।

कांग्रेस छोड़ने वाले नई पीढी के नेताओं की ताजा कड़ी में शामिल आरपीएन सिंह के पाला बदलने से यह लगभग साफ हो गया है कि दिग्गजों को असहज- नाराज करने की कीमत पर कांग्रेस को 'नेक्स्ट जेनरेशन पार्टी' बनाने का नेतृत्व का डेढ दशक का सियासी प्रयोग नाकाम साबित हुआ है। उत्तर प्रदेश से लेकर असम और त्रिपुरा से लेकर मध्य प्रदेश तक में बीते ढाई साल के दौरान एक-एक कर कांग्रेस के नए उभरे सितारों ने जिस तरह 'हाथ' का साथ छोड़ा है उसे देखते हुए पार्टी में ही अंदरखाने इस सियासी प्रयोग पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के युवा नेताओं में शामिल रहे आरपीएन सिंह के चुनाव के दरम्यान पाला बदलने को कांग्रेस चाहे डरपोक और कायर लोगों को फैसला बता इसके नुकसान की गंभीरता को कम दर्शाने का प्रयास करे। लेकिन पार्टी के सियासी गलियारों में एक बार फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद युवा पीढ़ी के नेताओं के कांग्रेस छोड़कर जाने के शुरू हुए सिलसिले पर अंदरूनी सवाल तो होने ही लगे हैं।
जैसा कि एक पुराने पार्टी दिग्गज ने ताजा घटनाक्रम पर कहा कि बेशक कांग्रेस के मौजूदा अंदरूनी सियासी समीकरण के चलते बहुत मुखर रुप से यह सवाल न उठे मगर इस वास्तविकता से पार्टी का पूरा कैडर रूबरू है कि जिन नेताओं ने बीते ढाई-तीन साल में कांग्रेस छोड़ी है वे अधिकांश शीर्ष नेतृत्व के करीबी चेहरे थे। आरपीएन सिंह से पहले उत्तर प्रदेश से हाथ का साथ छोड़ने वाले जितिन प्रसाद, ललितेश पति त्रिपाठी हों, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया, असम की सुष्मिता देव, त्रिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके युवा चेहरे प्रद्योत देव बर्मन और हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष रहे अशोक तंवर इन सभी ने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी छोड़ी है।
खास बात यह है कि ज्योतिरादित्य, जितिन, आरपीएन, सुष्मिता, तंवर तो 2004 के बाद कांग्रेस में उभरे राहुल गांधी के युवा बिग्रेड के सबसे प्रमुख चेहरे थे। कांग्रेस की अंदरूनी सियासत में वरिष्ठ नेताओं की आपत्तियों के बावजूद राहुल गांधी ने इन चेहरों को यूपीए सरकार की दस साल की सत्ता के दौरान पूरी तवज्जो दी।
दिलचस्प् यह है कि पार्टी के दिग्गज नेताओं के एक बड़े वर्ग के बीच इसकी वजह से यह आशंका गहरा गई कि वरिष्ठों की कीमत पर राहुल नई कांग्रेस बनाने की राह पर हैं। वरिष्ठ नेताओं और राहुल के बीच के अंदरूनी मतभेदों की शुरूआत की एक बड़ी वजह भी यही रही। इस लिहाज से देखा जाए तो बीते डेढ दशक के दौरान कांग्रेस और राहुल गांधी ने जिन युवा नेताओं पर दांव लगाया उसमें अधिकांश अब भाजपा का भगवा चोला पहन चुके हैं।
पार्टी के एक पुराने असंतुष्ट दिग्गज ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कांग्रेस के लिए इससे ज्यादा क्रूर स्थिति क्या हो सकती है ऐसे समय में जब पार्टी को सबसे ज्यादा जरूरत थी तब नेतृत्व के सबसे भरोसेमंद चेहरों ने ही कांग्रेस छोड़ दी । जबकि अपमानित और दरकिनार किए जाने के बावजूद पुराने वरिष्ठ नेता अब भी कांग्रेस को मौजूदा मुश्किलों से उबारने को लेकर बेचैन हैं। उनके अनुसार युवा चेहरों को आगे करने का प्रयोग अनुचित नहीं था और हर दल को भविष्य के लिए ऐसी पहल करनी होती। मगर कांग्रेस नेतृत्व ने जिन चेहरों पर दांव लगाया उसमें अधिकांश विरासत की सियासत के चेहरे रहे और जमीन से आए नेताओं के लिए इसमें बहुत गुंजाइश नहीं रही।
आरपीएन, जितिन, ज्योतिरादित्य, प्रद्योत और सुष्मिता सभी अपने पिता की विरासत पर सवार होकर सियासत में आए और नेतृत्व ने उन्हें हाथों हाथ लिया मगर इन्होंने कांग्रेस का हाथ उसके सबसे मुश्किल दौर में छोड़ दिया। कांग्रेस के एक दूसरे वरिष्ठ नेता का कहना था कि असंतुष्ट जी 23 समूह के नेताओं के पत्र में उठाए गए सवालों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की 19 दिसंबर 2020 को बुलाई गई बैठक में इस पर पांच घंटे तक चली चर्चा के अनुरूप कदम उठाए गए होते तो शायद आरपीएन जैसे नेताओं के जाने के सिलसिले को रोका जा सकता था।

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