भारत
अशरफ व पसमंदा के खाई को पाटे बिना भारतीय मुसलमानों को विकास असंभव
Shantanu Roy
23 Oct 2024 1:18 PM GMT
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छग
पप्पू फरिश्ता
हम इसे नकार नहीं सकते कि भरतीय मुस्लिम समुदाय में जातिवाद एक सामाजिक सच्चाई है, जिसे हाल ही में प्रकात साहित्य में उजागर किया गया है। भरतीय मुस्लिम समाज में जातिवाद के इस आवाम का हमें गा से सरकारों और उन लोगों द्वारा नजरअंदाज किया जाता रहा है, जो इस समाज में राजनेतिक पदों पर आसीन रहे हैं। मुस्लिम समाज, बहुसंख्यक हिन्दुओं की तरह वर्ण प्रथा पर आधारित विभाजित तो नहीं है लेकिन यहां भी कई श्रेणी हैं जिसे हमें स्वीकारना ही होगा। इस विभाजन का आधार मुसलमानों का सामाजिक स्तर है जिनके उद्यम यानि पैदाइ” का स्थान वर्णावली तथा उनके द्वारा किया जाने वाला है। आजादी से पहले किये गये कई अध्ययनों और जनगणना के आंकर्ड़ों में ये इंगित किया गया था कि किस प्रकार मुस्लिक समाज में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर विभाजनकारी प्रथा कार्य करती है।
बहरहाल, आजादी के बाद इस जाति पांत के आयाम को नजरअंदाज करते हुये मुस्लिम समुदाय को समद्दर्जी वस्तु के तौर पर माना गया। यह बताना जरूरी होगा कि जातिवाद की इस कड़ी में धर्म का कोई योगदान नहीं है। इस्लाम सैद्धांतिक तौर पर जातिप्रथा में विवास नहीं करता है। एकता और समानता इस्लामिक चिंतन के मूल तत्व हैं और यही कारण है कि दुनिया के अन्य मजहब की तुलना में यह आम लोगों को ज्यादा आकर्शित करता है। बता दें, इस्लाम सामाजिक समानता व इसे मानने वालों के साथ एक जेसा व्यवहार करने कि अपेक्षा करता है। आम तौर पर मुसलमानों में तीन तरह के जातीय भेद मौजूद हैं। पहला अरफ दूसरा अजलफ और तीसरा अरजल। इस कम में सबसे उपर वाली उच्च श्रेणी के मुसलमान आते हैं, जिन्हें अशरफ कहा जाता है। इस श्रेणी में भोख, सैयद, मुगल और पठान आते हैं। इस सामाजिक सोपान में दूसरा पद अजलफ को दिया गया है। इस श्रेणी में वे भारतीय मुसलमान आते हैं। भारतीय हिन्दु मजहब से किसी कारण व” धर्मातति हुए हैं।इस श्रेणी में बड़ी संख्या में उन कामगारों या कारीगरों कि है।
जो किसी समय में हिन्दु जाति का आर्थिक आधार हुआ करते थे। हिन्दु उच्च जातियों के जातीय अभीमान और मुस्लिम समाज में समानता का आकर्शण इन जातियों को अपना धर्म छोड़ने के लिए मजबूर किया। ये लोग अपना हिन्दु धर्म छोड़कर मुसलमान तो हो गये लेकिन यहां भी उन्हें वह सम्मान प्राप्त नहीं हुआ जिसके वो हकदार थे। इसी सोपान में सबसे निचले स्तर पर अरजल मुसलमान आतें हैं। ये निम्न जाति के मुसलमान आम तौर पर दलित हैं, जिन्होंने इस्लाम कबूल किया। लेकिन भारतीय मुस्लिम समाज ने इन्हें रं[ल के सिद्धांतों के अनुसार इज्जत नहीं प्रदान की। ये लोग अपने पारिवारिक व्यवसायों, जैसे धोबी, मोची और इसी तरह के अन्य कार्य करते हैं। यहां बता दें कि भारतीय मुसलमानों में 33 उपजातियां हैं, जिनमें 80 से लेकर 85 प्रतिशत अरजल और अजलफ मुसलमानों की है। आम तौर पर 0 से 45 प्रतिशत मुसलमानों का ताल्लुक अरफ श्रेणी से है। इन अरफ मुसलमानों का ही अधिकतर संसाधनों पर कब्जा है। धार्मिक स्थिति से लेकर राजनीति तक ये हावी हैं। उच्च कक्षा और सरकारी नौकरियों में सरकार के द्वारा चलाए जाने वाले कल्याणकारी योजनाओं का लाभ भी ज्यादा से ज्यादा इसी श्रेणी के मुसलमान उठा ले जाते हैं और पिछड़ी श्रेणी के मुसलमानों को कुछ भी नहीं मिल पाता है।
यह जाति भेद भाव मुसलमार्नों के सामाजिक व्यावहार में भी स्पष्ट झलकता है। उदाहरण के लिए, यहां 'गारीरिक कार्य करने वाले स्पश्ट तौर पर अलग हैं, यहां ना के बराबर अंतर जातीय विवाह होते हैं और इनर्मे विश प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज पाये जाते हैं। इस जाति भेद के कारण इन समूहों में भोशणकारी सामाजिक व्यावहार देखा जा सकता है। दरअसल, इस तरह की भेद भावपूर्ण जाति प्रथाओं के कारण अस्जल व अरफ मुसलमान हमें गा से बदतर स्थिति में रहते आये हैं, जिनका या तो बहुत कम या बिल्कुल भी राजनीतिक प्रतिनिधत्व नहीं होता है। इनका आर्थिक विकास भी कम से कमतर हुआ है। इन दोनों समूहों को आम भाशा में पसमंदा मुसलमान कहा जाता है जो 980 के दक से ही अपने लिए संविधान के अनुसार आरक्षण व सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत हैं। सच्चर कमेटी तथा रंगनाथन कमेठी के रिर्पोट में पसमंदा मुसलमानों द्वारा अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में सहे जाने वाले भेद भाव व उनके द्वारा सहे जाने वाले अमानवीय व्यवहार के पहलू पर रोनी डाली गई है। इन रिपोर्टो में अ'रफ मुसलमना या अन्य उच्च श्रेणी के मुसलमानों द्वारा इन पसमंदा मुसलमानों को सामाजिक वहिश्कार व छुआ छूत जैसी बुराईयों पर भी प्रकाश डाला गया है।
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