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इस बायोपिक में नजर आता है. फिल्म न एंटरटेन करती है और न इंस्पायर. सिर्फ रिकॉर्ड की तरह दर्ज करने के लिए इसे देखा जा सकता है.
क्रिकेट में जैसे एक अच्छी शुरुआत के बाद पारी धीरे-धीरे बिखर जाती है, वैसी ही कहानी है शाबाश मिठू की. भारतीय महिला क्रिकेट टीम के सबसे चमकदार नाम, मिताली राज की यह बायोपिक, इस नाम के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाती. महीने भर के अंदर निर्देशक सृजित मुखर्जी की यह दूसरी नाकाम और उबाऊ फिल्म है. पिछले महीने उनकी शेरदिलः द पीलीभीत सागा को लोग भूल चुके हैं. शाबाश मिठू को भुलाने में भी वक्त नहीं लगेगा. यादों में यह सिर्फ रिकॉर्ड की तरह रहेगी. तापसी पन्नू की फिल्म और मिताली राज की बायोपिक के रूप में. इसे अच्छी फिल्म की तरह याद रखना कठिन है.
कदम कदम पर संघर्ष
कहानी वैसे ही पारंपरिक घरों से शुरू होती है, जहां लड़की के टेलेंट पर लड़के के सपनों को तवज्जो दी जाती है. नन्हीं मिठू (इनायत वर्मा) का बड़े भाई का सपना है क्रिकेटर बनने का, लेकिन प्रतिभा है मिठू में. पहले दोस्त नूरी (कस्तूरी जगनम) और फिर कोच (विजय राज) की प्रेरणा तथा मदद मिठू को आगे बढ़ाते हैं. यह फिल्म का सबसे सुंदर और भावनात्मक हिस्सा है. लेकिन जैसी ही कहानी सात साल लंबी छलांग मारती है और पर्दे पर तापसी की एंट्री होती है, यहां से चीजें गड़बड़ाती हैं. फिल्मी होती जाती हैं. नेशनल कैंप में मिठू का चयन होता है और वहां वह पाती है कि सब सपने देखने जैसा आसान नहीं है. सीनियर खिलाड़ी उसका वेलकम नहीं करती. मौके-बेमौके हंसी उड़ाते हैं, चिढ़ाते हैं. मुश्किल दिनों में भी सहानुभूति नहीं रखते. यहीं से नए संघर्षों की शुरुआत होती है. टीम में जगह बनाने से लेकर लोगों के दिल में उतरने तक. फिर यहां अपनी पहचान का संघर्ष भी है कि जब मैन इन ब्लू हैं तो अपने नाम की जर्सियां पहनीं वीमेन इन ब्लू क्यों नहीं.
फोकस कम और हड़बड़ी ज्यादा
मिताली राज के बीस साल के करिअर को ढाई घंटे में दिखाना निश्चित ही बहुत कठिन काम था. इसी खींचतान में फिल्म लड़खड़ाती है. फिल्म की पटकथा और सिनेमा की तकनीक में संतुलन नहीं बैठता. स्क्रिप्ट आराम से धीरे-धीरे चलती है और एडिटिंग तेज रफ्तार से फिल्म को आगे धकेलती है. यह साफ नहीं होता कि डायरेक्टर का मूड क्या है. दूसरे हाफ में जब क्रिकेट पर फोकस आता है तो आपको मैच के बजाय मैच की हाई लाइट्स देखने जैसा महसूस होता है. खास दौर पर आखिरी हिस्से में जो वर्ल्ड कप क्रिकेट टूर्नामेंट है, वहां बहुत हड़बड़ी है. सृजित मैदान पर मिताली राज की क्रिकेट के मैदान पर रची उपलब्धियों को धीरज और व्यवस्थित ढंग से दिखाने में नकाम रहे.
ऐसे कैसे कंगना का मुकाबला करेंगी तापसी
शाबाश मिठू साधारण-औसत फिल्म है. स्क्रिप्ट, डायरेक्शन, बैकग्राउंड म्यूजिक से लेकर गीत-संगीत तक कुछ नहीं बांधता. तापसी पन्नू फिल्मों में अब खुद को दोहराती दिख रही हैं. यहां न उनकी बॉडी लैंग्वेज में नयापन है और न चेहरे के हाव भाव में. जहां तक लुक की बात है, तो हिंदी में बायोपिक बनाते हुए डायरेक्टर अपने ऐक्टरों को मूल शख्सीयत से जैसे अलग ही कर देते हैं, जबकि मेक-अप और गेट-अप की दुनिया में क्रांति हो चुकी है. पिछले हफ्त रॉकेट्री में नंबी नारायण बने आर.मधावन को देखें या फिर कल ही रिलीज हुए फिल्म इमरजेंसी के फर्स्ट लुक टीजर में इंदिरा गांधी बनी, कंगना रनौत को. तय है कि इस तरह से काम करते हुए तापसी काम में कंगना को कभी टक्कर नहीं दे पाएंगी. जितना फर्क तापसी और मिताली के लुक में है, उतना ही मिताली की असल जिंदगी की कहानी और इस बायोपिक में नजर आता है. फिल्म न एंटरटेन करती है और न इंस्पायर. सिर्फ रिकॉर्ड की तरह दर्ज करने के लिए इसे देखा जा सकता है.
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