- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- महिलाओं काे अधिकार है...
x
महिलाओं काे अधिकार
साधना शंकर का कॉलम:
अक्टूबर 2021 के बाद से अब तक चार देशों में महिला राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन चुकी हैं- बारबाडोस, ट्यूनिशिया, स्वीडन और होंडुरास। कुछ समय पूर्व इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट ऑफ कोलकाता की नीना गुप्ता ने वर्ष 2021 का प्रतिष्ठित डीएसटी-आईसीटीपी-आईएमयू रामानुजन पुरस्कार जीता। विकासशील देशों के युवा गणितज्ञों को दिया जाने वाला यह पुरस्कार जीतने वाली वो पहली भारतीय महिला हैं।
महिलाओं ने खेल, व्यवसाय और सौंदर्य के क्षेत्र में भी सफलता के प्रतिमान रचे हैं। कल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया, जिसमें उत्सव मनाने के लिए बहुत कुछ था। लेकिन इस साल की थीम 'ब्रेक द बायस' (पक्षपात को समाप्त करना) ही हमें यह बताने के लिए बहुत है कि अभी बहुत लम्बी यात्रा बाकी है। महामारी के बाद अब निजी और सार्वजनिक स्तर पर स्वास्थ्य पर फोकस बढ़ गया है, जिससे स्वास्थ्य-सम्बंधी रिसर्च में परम्परागत लैंगिक-भेद भी उभरकर सामने आ रहा है।
ऐतिहासिक रूप से महिलाएं क्लिनिकल ट्रायल्स का हिस्सा नहीं रही हैं, अलबत्ता अब यह स्थिति बदल रही है। पहले इसके लिए तर्क दिए जाते थे कि हम प्रजनन आयु-समूह की महिलाओं को उन दवाइयों से बचाना चाहते हैं, जो भविष्य की उनकी संतानों को प्रभावित कर सकती हैं। फिर यह कहा जाने लगा कि स्त्रियों के हॉर्मोन्स रिसर्च को प्रभावित कर सकते हैं।
रिपोर्टों के अनुसार दुनिया में स्वास्थ्य-सम्बंधी रिसर्च के लिए सबसे ज्यादा फंड देने वालों में से एक यूएस नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ अपने संसाधनों का अधिकतम हिस्सा ऐसी बीमारियों पर खर्च करता है, जो मुख्यतया पुरुषों को प्रभावित करती हैं। इस भेदभाव के कारण महिलाओं को ऐसी स्वास्थ्य-सुविधाएं प्राप्त होती हैं, जो उनके शरीर की सम्पूर्ण समझ पर आधारित नहीं होतीं।
उन्हें चिकित्सकीय पक्षपात का भी सामना करना पड़ता है, उनके मामलों को विशेषज्ञों को कम रेफर किया जाता है। यही स्थिति मानसिक-रोगों में भी है। तनाव पर पुरुषों और महिलाओं की प्रतिक्रिया एक जैसी नहीं होती। पुरुषों को तनाव होने पर रक्तचाप जैसी शारीरिक प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है, वहीं महिलाओं की प्रतिक्रियाएं अधिक मनोवैज्ञानिक होती हैं। उनके रोग भी पुरुषों की तुलना में भिन्न होते हैं।
मेडिकल रिसर्च के क्षेत्र में लिंगभेद का प्राथमिकता से समाधान करना चाहिए। दुनिया की आधी आबादी होने के नाते यह महिलाओं का अधिकार है कि वे अपनी जैविक संरचना के आधार पर स्वास्थ्य-सेवाएं पा सकें। महामारी के बाद कार्यस्थलों पर भी महिलाओं के लिए चुनौतियां उभरी हैं। चाहे वर्क फ्रॉम होम हो या हाइब्रिड शैली- महिलाओं की जरूरतों को ध्यान में रखकर नियम बनाए जाने चाहिए।
कोविड-19 के कारण नौकरियां गंवाने वालों में महिलाओं की संख्या बड़ी है। उन्हें फिर से काम पर लौटाने के लिए कामकाज के ढांचे में लचीलापन लाने की जरूरत है, ताकि वे मौजूदा दौर में पिछड़ न जाएं। दुनियाभर के शहर और अर्बन-स्पेस पुरुषों के द्वारा नियोजित और निर्मित हैं। उनमें महिलाओं की जरूरतों के प्रति सजगता नहीं होती। सार्वजनिक सुविधाघरों और सड़कों पर पर्याप्त रोशनी जैसी बुनियादी सुविधाओं तक का अभाव पाया जाता है।
रहवासी और व्यावसायिक एरिया को मिलाते हुए उन्हें महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाना या सुरक्षित ट्रांसपोर्ट सुविधा मुहैया कराना भी लैंगिक-दृष्टि से सम्पन्न बुनियादी ढांचे का हिस्सा होना चाहिए। इंटरनेट सेवा प्रदाताओं की जिम्मेदारियों पर बात करना भी जरूरी है। महिलाओं के साथ साइबर-स्टाकिंग और इंटरनेट-दुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ी हैं।
इन्हें रोकने के लिए प्रभावी नियामक फ्रेमवर्क बनाने की आवश्यकता है। ऑनलाइन हिंसा भी ऑफलाइन हिंसा की तरह महिलाओं को बलप्रयोग से चुप करा देना चाहती है। अगर 'ब्रेक द बायस' में एक और सदी लगने जा रही है तो हर महिला दिवस पर हमें आकलन करना चाहिए कि हम बदलावों की दिशा में कितना आगे बढ़े।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम का डाटा बताता है कि कोविड-महामारी ने ग्लोबल जेंडर गेप को समाप्त करने के लिए जरूरी समयसीमा को 99.5 वर्ष से बढ़ाकर 135.6 वर्ष कर दिया है। लिंगभेद में भी प्री-कोविड और पोस्ट-कोविड की श्रेणियां बन गई हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
Tagsअक्टूबर 2021बारबाडोसट्यूनिशियास्वीडनहोंडुरास2021 का प्रतिष्ठित डीएसटी-आईसीटीपी-आईएमयू रामानुजन पुरस्कार जीताWomen's rightshealth services based on biological structureOctober 2021women presidents in four countrieswomen have become prime ministersBarbadosTunisiaSwedenHondurasNeena Gupta of former Indian Statistical Institute of Kolkataprestigious DST of 2021- Won the ICTP-IMU Ramanujan Award
Gulabi
Next Story