सम्पादकीय

चापलूसों और चमचों से घिरे गांधी परिवार को प्रशांत किशोर का फार्मूला क्यों नहीं भाया?

Gulabi Jagat
29 April 2022 8:08 AM GMT
चापलूसों और चमचों से घिरे गांधी परिवार को प्रशांत किशोर का फार्मूला क्यों नहीं भाया?
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ओपिनियन
अजय झा |
किसी डॉक्टर का काम इतना ही होता है कि वह आपके बीमारी का सही आंकलन करे और उसका इलाज बताए. वह इलाज जबरदस्ती नहीं कर सकता. ऑपरेशन करने से पहले डॉक्टर भी मरीज और उसके रिश्तेदार या किसी करीबी मित्र से एक फॉर्म पर हस्ताक्षर करवाता है कि वह स्वेक्षा से ऑपरेशन करवा रहे हैं. कांग्रेस पार्टी (Congress Party) बीमार है और इसमें किसी को कोई शक नहीं. स्वयं कांग्रेस के बड़े नेताओं को भी पता है कि पार्टी अस्पताल के आईसीयू में है और ऑपरेशन की सख्त जरूरत है. स्पेशलिस्ट डॉक्टर को बाहर से बुलाया गया, उसने मर्ज़ का सही आंकलन भी किया और बताया कि अविलम्ब बड़ी सर्जरी करने की आवश्यकता है. पर इससे पहले कि डॉक्टर ऑपरेशन करता, उसे रोक दिया गया, यह कह कर कि डॉक्टरों की एक टीम का गठन होगा जो मिलजुल कर फैसला करेंगे कि ऑपरेशन कब और कैसे होगा. लिहाजा उस स्पेशलिस्ट डॉक्टर ने अपने पैर पीछे खिंच लिए और कहा कि जब आपके पास खुद इतने बड़े डॉक्टर हैं तो फिर उसकी जरूरत ही क्या है? वह डॉक्टर कोई और नहीं बल्कि प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) हैं.
प्रशांत किशोर जिन्हें पीके नाम से भी जाना जाता है, ने मंगलवार को कांग्रेस पार्टी को टाटा बाय बाय कर दिया, शायद अलविदा नहीं क्योंकि यह पहला अवसर नहीं है जब वह कांग्रेस पार्टी के करीब आये और फिर वापस चले गए और भविष्य में फिर कभी वापस आ जाएं 2024 के चुनाव के लिए ना सही पर शायद 2029 के चुनाव में. पिछले साल भी चर्चा जोरों पर थी कि पीके कांग्रेस पार्टी में शामिल होने वाले हैं, पर किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हो पाया तथा कांग्रेस पार्टी पांच और राज्यों में चुनाव हार गयी. ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता कि अगर पीके पार्टी में शामिल हो गए होते तो फिर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी जीत जाती.
प्रशांत किशोर में धैर्य की कमी है
चुनाव में मिली करारी हार के बाद जब गांधी परिवार को अपने नेतृत्व पर खतरा मंडराता दिखा तो उन्हें फिर से पीके की याद आ गयी. अब पीके को बुलावा आया था या फिर वह खुद वहां गए थे, इसके कोई खास मायने नहीं हैं. उन्होंने लम्बी-चौड़ी प्रेजेंटेशन दी. कई दौर में मीटिंग हुई. जब एक कमिटी ने अपना रिपोर्ट पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को सौंपा और यह लगने लगा कि कांग्रेस पार्टी उनसे सहमत है और उन्हें कांग्रेस पार्टी में शामिल किया जाएगा तो यकायक यह घोषणा हुई कि एक उच्चस्तरीय कमिटी का गठन होगा जो अभी से ले कर 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव तक फैसले लेगी, जिसमें पीके भी शामिल होंगे.
इस घोषणा के बाद मामला उलझ गया. पीके का दिमाग कंप्यूटर की तरह चलता है और वह अपने फन में माहिर भी हैं, पर सभी को पता है कि उनके पास धैर्य की कमी है. अगर धैर्य होता तो वह अब तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही जुड़े होते. पर जब मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीनों बाद भी उन्हें कोई पद नहीं दिया, तो वह ना सिर्फ मोदी से दूर हो गए बल्कि उनके जानी दुश्मन भी बन गए.
उस प्रस्तावित उच्चस्तरीय कमिटी में गांधी परिवार से करीबी किसी खास नेता को अध्यक्ष बनाया जाता और पीके को उनके अधीन काम करने को कहा जाता. अब अगर पीके को किसी और नेता के अधीन ही काम करना होता तो वह पिछले वर्ष ही कांग्रेस पार्टी में शामिल हो चुके होते और राहुल गांधी के अधीन काम करते होते. राजनीति में आने से पहले सोनिया गांधी ने राजनीति को काफी करीब से देखा था पहले इंदिरा गांधी के बहू के रूप में और फिर राजीव गांधी की पत्नी के रूप में.
सोनिया गांधी ने उन दोनों से एक बात सीख ली थी कि किसी कठिन विषय पर अगर फैसला नहीं लेना है तो सबसे अच्छा तरीका होता है एक कमिटी के बाद दूसरी कमिटी का गठन किया जाए और जब तक वह मुद्दा ठंडा ना पड़ जाए वह कमिटी अपना काम करते रहे. जाहिर सी बात है कि अगर पीके ने किसी गैर-गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की शिफ़ारिश की थी तो वह गांधी परिवार को कहां मंजूर होने वाला था.
कांग्रेस पार्टी ने पीके के रूप में एक सुनहरा असवर गंवा दिया
कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी समस्या ही गांधी परिवार है. परिवार को पार्टी अध्यक्ष पद और प्रधानमंत्री की दावेदारी दोनों ही चाहिए. उनके होते हुए पार्टी में कोई दूसरा नेता बड़ा नेता बन जाए यह उन्हें बर्दाश्त नहीं है. पर पीके ने शायद ऐसा ही कुछ सुझाव दिया जिससे गांधी परिवार को अपने आधिपत्य पर खतरा दिखने लगा था.
गांधी परिवार को चापलूसों और चमचों से घिरा होना अच्छा लगता है. पीके को लगने लगा था कि अभी से उनकी लड़ाई उन चापलूसों और चमचों से होने वाली है. चापलूसों और चमचों को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी थी, क्योंकि अगर हरेक पद पर चुनाव जीत कर ही लोग आने लगे तो वह कहीं के नहीं रहेंगे. वह कांग्रेस मुख्यालय में और गांधी परिवार के समक्ष उस नाग की तरह फन काढ़े बैठे हैं, मानो गांधी परिवार की रक्षा करना ही उनका कर्तव्य है. बहरहाल इस लड़ाई में चापलूसों और चमचों की जीत हुई, एक उच्चस्तरीय कमिटी के गठन का ऐलान हो गया और पीके अपने रास्ते चलते बने.
बाकी कुछ भी कहा जाए कि क्यों पीके ने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन करने से मना कर दिया, वह सिर्फ एक बहाना ही है. असली बात सिर्फ इतनी ही है कि गांधी परिवार भले ही बलिदान और त्याग की बात करती हो पर उन्हें और उनके चापलूसों तथा चमचों की टोली को पद त्याग करना मंज़ूर नहीं है, चाहे पार्टी की ऐसी की तैसी क्यों ना हो जाए. रही बात कांग्रेस पार्टी की तो सब कुछ भगवान भरोसे चल ही रहा है और भविष्य में भी भगवान भरोसे ही चलता रहेगा. पर कांग्रेस पार्टी ने पीके के रूप में एक सुनहरा अवसर जरूर गंवा दिया जो शायद ऑपरेशन करके पार्टी को एक बार फिर से चुस्त-दुरुस्त करने की क्षमता रखता था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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