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नवभारत टाइम्स: केंद्र सरकार ने आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करते हुए यह मान लिया कि राज्य सरकारें भी अपने स्तर पर विभिन्न समुदायों को अल्पसंख्यक का दर्जा दे सकती हैं। हलफनामा उस याचिका पर सुनवाई के दौरान दाखिल किया गया, जिसमें कहा गया है कि देश के कई राज्यों में अल्पसंख्यक स्थिति में होने के बावजूद हिंदुओं के साथ बहुसंख्यक की तरह व्यवहार किया जा रहा है। याचिका में 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर बताया गया है कि लक्षद्वीप, मिजोरम, मेघालय, मणिपुर, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और पंजाब में हिंदुओं की आबादी अन्य समुदायों से कम है। इसके बावजूद वहां उसे अल्पसंख्यक दर्जा हासिल नहीं है।
इस वजह से इस समुदाय के लोग अपने शिक्षा संस्थान चलाने जैसे उन अधिकारों से वंचित हैं जो अल्पसंख्यक समुदायों को संविधान द्वारा दिए गए हैं। याचिका सबसे पहले 2017 में दायर की गई थी। लेकिन कई कारणों से इस पर सुनवाई अटकती रही। संभवत: मामले की संवेदनशीलता के मद्देनजर सरकार भी इस पर आगे बढ़कर कुछ कहने से बच रही थी। इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने 31 जनवरी की सुनवाई के दौरान न केवल केंद्र सरकार की खिंचाई की बल्कि उस पर 7500 रुपये का जुर्माना भी ठोंक दिया था। बहरहाल, अब केंद्र सरकार ने इस मामले में स्थिति साफ करते हुए कह दिया है कि चूंकि यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में है, इसलिए राज्यों को भी अपने स्तर पर किसी समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान करने का पूरा अधिकार है।
कई राज्य सरकारें पहले भी अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करती रही हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र सरकार 2016 में यहूदी समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा दे चुकी है। ऐसे ही कर्नाटक सरकार तमिल, तेलुगू, उर्दू, हिंदी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं को अल्पसंख्यक भाषा के रूप में अधिसूचित कर चुकी है। 2002 में टीएमए पाई केस में सुप्रीम कोर्ट भी यह आदेश दे चुका है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों से जुड़े संविधान के अनुच्छेद 30 से संबंधित मामलों का निर्धारण राज्य स्तर पर किया जा सकता है। साफ है कि कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों के लिहाज से खास जटिलता न होने के बावजूद यह मामला काफी लंबा खिंच गया। इसे और लटकाए रखने का कोई मतलब नहीं था।
लेकिन समाज, समुदाय और धर्म से जुड़े मामलों में सिर्फ कानूनी पहलुओं तक सीमित नजरिया रखकर आगे बढ़ना कई बार नुकसानदेह साबित होता है। ऐसे में अगर केंद्र सरकार इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहती थी तो उसे भी गलत नहीं कहा जा सकता। बल्कि समझदारी का तकाजा यही है कि कानूनी और संवैधानिक प्रावधान स्पष्ट हो जाने के बावजूद संबंधित राज्य सरकारें इस मामले में जल्दबाजी दिखाने के बजाय धीरे-धीरे और सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ें।