सम्पादकीय

'द कश्मीर फाइल्स' का टैक्स फ्री होना असल मायनों में क्या संदेश देता है

Gulabi Jagat
19 March 2022 2:56 PM GMT
द कश्मीर फाइल्स का टैक्स फ्री होना असल मायनों में क्या संदेश देता है
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वह 1569 का जमाना था और आज 2022 है . करीबन चार सौ तिरपन साल बीत गए हैं
सुतानु गुरू।

कश्मीरी पंडितों (Kashmiri Pandits) के पलायन पर आधारित फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' (The Kashmir Files) को कर-मुक्त का दर्जा देने वाले बीजेपी (BJP) राज्यों में हंगामा हो रहा है. लेकिन कुछ अजीबो-गरीब वजहों से इस हंगामे ने लेखक को फिल्म "मुगल-ए-आजम" की याद दिला दी. जब सम्राट अकबर को एक "नौकरानी" द्वारा यह खुशखबरी दी गई कि उसे एक पुत्र -रत्न हुआ है, तो उन्होंने अपनी उंगली से एक अंगूठी उतार कर नौकरानी को तोहफा में देते हुए वादा किया कि वो बतौर हिंदुस्तान के सम्राट उसकी एक ख्वाईश को जरूर पूरा करेंगे. फिल्म के क्लाइमेक्स में वह महिला अंगूठी और राजा के द्वारा किए गए वादे का इस्तेमाल करती है और कहती है कि अनारकली को दिए गए मौत की सजा (बोलने के लिए) को बदल दिया जाए.
वह 1569 का जमाना था और आज 2022 है . करीबन चार सौ तिरपन साल बीत गए हैं. लेकिन हम भारतीय आज भी "राज्य संरक्षण" के टुकड़ों का एहसान मानते हैं. और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम आज भी सरकार को शाही इकाई मानते हैं जो किसी दैवीय सत्ता के तहत इस आशय का अध्यादेश पारित कर रही है. लेखक ने 'द कश्मीर फाइल्स' फिल्म नहीं देखी है, लेकिन फिल्म को "टैक्स फ्री " का दर्जा देने के पूरी तरह खिलाफ हैं. यह विरोध पैसे या राजस्व की हानि के बारे में नहीं है क्योंकि यह एक बहुत ही मामूली राशि होगी. यह सामंती भारत के उस निरंतर जिद्द के बारे में है जो इन संस्थानों के जरिए राज्य संरक्षण का फरमान जारी करती है.
नेहरू को दोष देना मूर्खतापूर्ण और अभद्र होगा
उन दिनों के बॉम्बे में कुछ साल काम करने के बाद जब यह युवा और भोला लेखक दिल्ली आया तो चकित रह गया. उन्होंने देखा कि "मान्यता प्राप्त" पत्रकार लुटियंस दिल्ली के आरामदायक सरकारी घरों में रहते हैं. ये सरकारी आवास "काका नगर" और "बापा नगर" जैसे उपयुक्त नाम वाले इलाके में थे. बेशक उन दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने पत्रकारों के लिए ऐसी "उदार" मुफ्त सरकारी आवास नीति लागू की थी कि मजाक में लोग कहने लगे थे कि "पानी-पुरी" बेचने वाले भी संपादक बन गए हैं.
लेकिन राज्य संरक्षण के इस विशाल सामंती इकोसिस्टम में पत्रकार महज एक छोटा हिस्सा थे. ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक जोरदार दावा करते हैं कि "नए भारत" में नेहरूवादी युग की सत्ता और संरक्षण संरचनाओं और हाइरार्की को व्यवस्थित रूप से नष्ट किया जा रहा है. आखिर सरकार का क्या काम है कि वो आज के आधुनिक लोकतंत्र के दौर में भी अच्छी कला, साहित्य, नृत्य, संगीत, फिल्मों और बहुत कुछ अन्य को "पहचान दिलाए या फिर पुरस्कृत करें."
बहरहाल नेहरू के कार्यकाल में ही संरक्षण देने वाली संस्थानों में से अधिकांश का निर्माण हुआ था लेकिन फिर भी इस सब के लिए नेहरू को दोष देना मूर्खतापूर्ण और अभद्र होगा. आखिरकार, उस युग की सफल बॉलीवुड फिल्मों में ये दिखाया गया था कि अधिकांश भारतीय समाजवाद से प्यार करते थे और कई ऐसे भी थे जो सोवियत संघ को प्यार करते थे जहां राज्य संरक्षण पूरी तरह से एक "कला" की तरह विकसित हुआ था.
जब पहलाज निहलानी को सेंसर बोर्ड का प्रमुख बनाया गया
इसलिए हमने 1954 में "अच्छे साहित्य" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार शुरू किया था. फिर उसी साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की शुरुआत हुई थी. केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य दो –दो साल के लिए चुने जाते हैं फिर भी इसके पास किसी भी फिल्म की रिलीज को रोकने की वास्तविक शक्ति है. दरअसल राज्य अपने "स्वतंत्र" जूरी सदस्यों के जरिए एक अनौपचारिक "फ़रमान" (आदेश) जारी कर फिल्म के रिलीज को रोक सकता है. फिर हमारे पास सरकार की फंडिंग से चलने वाला नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) है जो थिएटर कलाकारों को बाजार में लाने के लिए "असेंबली लाइन" के रूप में कार्य करता है. भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान भी ऐसी ही एक संस्था है.
हमारे पास "अच्छे" संगीत, नृत्य और नाटक को बढ़ावा देने के लिए संगीत नाटक अकादमी है. केंद्र और राज्य स्तर पर संरक्षण के इतने सारे साधन हैं कि उन सभी का ब्यौरा तैयार करने में एक किताब लग सकती है. और हम खेल और पद्म पुरस्कारों की श्रृंखला का अभी जिक्र भी नहीं कर रहे हैं. इन सभी तरह की संस्थाओं का इस्तेमाल या बेजा इस्तेमाल वैचारिक और अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता रहा है. व्यवस्था में बदलाव का मतलब था इन संस्थानों के मुखिया को बदलना. 2004 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के हारने के समय एक अनुभवी अभिनेता सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष थे. एक नई सत्ता व्यवस्था के साथ उन्हें बदलकर मशहूर अभिनेत्री शर्मिला टैगोर को सेंसर बोर्ड का चेयरपरसन बना दिया गया. बहरहाल उनके कार्यकाल के दौरान भाई-भतीजेवाद का गंभीर आरोप लगे जब उनके बेटे सैफ अली खान ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता की ट्रॉफी "जीत" ली थी.
2014 में यूपीए के चुनाव हारने और एक नई शासन व्यवस्था के आने के बाद के तूफान की तुलना में यह विवाद मामूली था. कई कामुक, सेक्सिस्ट और अश्लील फिल्मों के निर्माता-निर्देशक पहलाज निहलानी को सेंसर बोर्ड का प्रमुख बनाया गया और उन्होंने "भारतीय मूल्यों की रक्षा करने की कसम खाई. यह लेखक उसे याद कर जोर-जोर से हंसने लगा था. "उदारवादियों" ने तर्क दिया कि कम से कम टैगोर के पास एक "क्लास" है, जबकि निहलानी के पास सिर्फ फूहड़ता ही है. शायद ऐसा मुमकीन है, लेकिन राज्य को ऐसे निर्णय लेने में क्यों शामिल होना चाहिए. क्या आजाद भारतीयों की अपनी कोई एजेंसी नहीं है?
"प्रायोजकों" ने चीजों को नाटकीय रूप से बदल दिया है
कुछ लोग ये तर्क दे सकते हैं कि आज़ादी के तुरंत बाद के वर्षों में भारतीय कला, नृत्य, संगीत, साहित्य और इसी तरह की गौरवशाली विरासत राज्य संरक्षण के बिना लुप्त हो जाती, क्योंकि धन का कोई अन्य स्रोत नहीं था. लेखक के मुताबिक ये सोच मूर्खतापूर्ण है. लेकिन अगर यह सच भी था तो 1991 के बाद से फल-फूल रहे भारतीय उद्यमियों और "प्रायोजकों" ने चीजों को नाटकीय रूप से बदल दिया है.
टाटा और जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को साहित्य अकादमी पुरस्कारों की तुलना में कहीं अधिक पैसा और तवज्जो मिलता है. अजीम प्रेमजी, आनंद महिंद्रा, रोहन मूर्ति जैसे दर्जनों फिलानथ्रोपिस्ट हैं जिन्होंने भारतीय विरासत पर शोध के लिए भारी मात्रा में दान दिया है. इस तरह की और भी कई पहल हर दूसरे दिन सामने आ रही हैं. फिल्मों में भी करण जौहर, आदित्य चोपड़ा, सलमान खान जैसे बड़े लोग सैकड़ों करोड़ों रुपये कमाते हैं. निश्चित रूप से वे सभी राज्य द्वारा वित्त पोषित एफटीआईआई को और बेहतर बना सकते हैं. मैं इस तरह के और भी मिसाल देकर आगे बढ़ता रह सकता हूं.
यदि हम सही मायने में एक "नए भारत" का निर्माण कर रहे हैं, तो इन रूढ़ीवादी उपकरणों और राज्य संरक्षण के संस्थानों को सभ्य और सम्मानजनक तरीके से दफन कर देना चाहिए. सभी मनुष्य आत्म-संदेह से ग्रस्त हैं. यह लेखक भी एक बार आत्म-संदेह की गिरफ्त में आ गया था, जब मोटरसाइकिल एम्बुलेंस मैन करीमुल हक और जंगलों के इनसाइक्लोपीडिया कहे जाने वाले तुलसी गौड़ा ने पद्म पुरस्कार जीते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat

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