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- मुखड़ा क्या देखे दर्पण...
अरुणेंद्र नाथ वर्मा: काशी का वह ज्ञानी, लेकिन मुंहफट जुलाहा सबको समझाता था 'कागज की इक नाव बनाई, छोड़ी गहरे जल में, धर्मी कर्मी पार उतर गए, पापी डूबे जल में, तेरे दया धरम नहीं मन में, मुखड़ा क्या देखे दर्पण में'। इसके बावजूद दया धरम की गति इन छह सौ सालों में कुछ खास नहीं सुधरी है। उलटे, दर्पण में अपना मुखड़ा देखने की बीमारी महामारी में बदल गई है। आज कबीर जीवित होते तो भगवान के बनाए हर बंदे को मुग्ध होकर अपने मुखड़े को दिन-रात निहारते देख कर हैरत में आ जाते।
दर्पण में अपना मुखड़ा देखने का शौक अब बहुत ऊंचाइयां हासिल कर चुका है। मुखड़े सहेज कर 'क्लाउड' में रखे जाने लगे हैं। पहले लोग दिल के आईने में तस्वीरे-यार रखते थे और जब जी चाहता सिर झुका कर दीदारे-यार कर लेते थे। अब 'क्लाउड' में संजो कर रखा हुआ चेहरा कहीं भी, किसी भी प्रहर में देखा जा सकता है। मगर अब बादलों में भी यार के चेहरे की अपेक्षा खुद के चेहरे ज्यादा संजो कर रखे जाते हैं।
जिंदगानी के सफर में मुड़-मुड़ कर देखे जाने वाले चेहरे यार के न होकर खुद के ही क्यों न हों? जब कसमें वादे, प्यार वफा सब पर से लोगों का विश्वास उठ गया हो और भरी दुनिया में अकेला हितैषी सब स्वयं को ही मानने लगें हों, तो दिल का आईना हो या हाथों में पकड़ा हुआ दर्पण, किसी और की तस्वीर क्यों देखें।
पद्मिनी के मुखड़े की एक झलक दर्पण में देख कर उस पर दिलो-जान लुटा बैठे अलाउद्दीन खिलजी सरीखे अब कहां मिलते हैं। आज के दिन उसके पास अपने नामराशि दूसरे अलाउद्दीन यानी अलादीन का जादुई चिराग होता तो वह उसे दिन में हजार बार रगड़ता और हर बार दर्पण में अपनी ही सूरत दिखाने की फरमाइश करता।
मुगले-आजम के भव्य शीशमहल में कांच के हजारों टुकड़ों पर झिलमिलाती तस्वीरों में शहजादे सलीम को अनारकली की नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी तस्वीर नजर आती। ग्रीक कथा वाला नार्सिसस शांत जल में अपनी सूरत देख कर खुद पर ही मुग्ध हो जाने के लिए सारी दुनिया में प्रसिद्ध हो गया था। आज के युग का 'ब्रांड एंबेसेडर' उससे बेहतर और कौन हो सकता है। आत्ममुग्धता हमारे युग की पहचान बन गई है। शायद आज का कालखंड सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग की तरह आत्ममुग्ध युग के नाम से पहचाना जाए।
आभासी संसार में सोशल मीडिया के जरिए आने वाले पहले अपने परिचय के रूप में अपनी तस्वीर चिपका कर खुश हो जाते थे, लेकिन इतने से संतोष कहां मिलता। प्रोफाइल में तस्वीर डालने के बाद मन में लगातार चिंता बनी रहती थी कि उनके सर्वगुण संपन्न व्यक्तित्व का कोई आकर्षक पहलू तस्वीर में आने से छूट न गया हो। तस्वीर या प्रोफाइल को खूबसूरत और आकर्षक बना कर प्रस्तुत करने की तकनीक देखते-देखते एक कला बन गई और सामान्य प्रोफाइल 'डबल प्रोमोशन' पाकर डीपी अर्थात 'डिस्प्ले प्रोफाइल' बन गई।
अपनी छवि बदल-बदल कर सोशल मीडिया में प्रस्तुत करने वाले अब गिरगिट की तरह रंग बदलते नजर आते हैं। उनके आभासी दोस्त, जो हर बदली हुई तस्वीर की तारीफ में 'लाइक' और पुष्पगुच्छ भेंट करना एक पावन कर्तव्य की तरह निभाते हैं, अपनी डीपी पेश करने को भी उतने ही आतुर होते हैं। मौके का फायदा उठाने वाले गंजों को कंघी बेच सकते हैं, तो अपनी छवि सुधारने को आतुर लोगों को डीपी बनाने के नुस्खे देने वाले कैसे पीछे रहते।
'डिस्प्ले प्रोफाइल' को अपनी पहचान बनाने के पहले बहुत कुछ सोचना-समझना पड़ता है। फिर यह प्रक्रिया भी छायावाद और रहस्यवाद के सोपानों से गुजरते हुए प्रतीकवाद और प्रयोगवाद तक पहुंचती है। बदल-बदल कर डीपी पेश करने वाले गालिब के शेर की याद दिलाते हैं- 'उम्र भर गालिब यही गलती करता रहा, धूल चेहरे पे थी और आईना साफ करता रहा'। आईना साफ करने वाले अपनी तस्वीर नहीं चमका पाने पर आईने की शिकायत करते हैं- 'आइना भी भला कब किसी को सच बता पाता है, जब भी देखो दायां, तो बायां ही नजर आता है'। कृष्णबिहारी नूर को भी आईने से यही शिकायत थी, 'आईना ये तो बताता है कि मैं क्या हूं मगर, आईना इस पे खामोश है कि क्या है मुझमें'।
नूर जितने बेहतरीन शायर हैं उतनी ही संजीदगी से हकीकत का मुकाबला भी कर लेते हैं। आईने से शिकायत करने के बावजूद उन्हें भी मानना पड़ा- 'जड़ दो चांदी में चाहे सोने में, आईना झूठ बोलता ही नहीं'। दर्पण में अपना मुखड़ा देख-देख कर न थकने वाले, अपनी 'प्रोफाइल' की तस्वीरें लगातार सुधारने वाले और अपनी डीपी को रगड़-रगड़ कर उसमें अनूठी चमक पैदा करने की चाहत में शहीद होते जाने वाले कबीर दास से लेकर आज तक का थोड़ा-सा भी 'आईना साहित्य' पढ़ डालें, तो शायद मुखड़ा बार-बार दर्पण में निहारना छोड़ दें।