सम्पादकीय

परंपराएं अपनी अपनी

Subhi
13 April 2022 4:56 AM GMT
परंपराएं अपनी अपनी
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श्मशान वैराग्य शब्द से तो परिचित था, पर पिछले दिनों एक और अद्भुत शब्द से परिचय हुआ- ‘श्मशान-बंधु’। एक मित्र लेखक के निधन पर श्मशान घाट पहुंचा था।

गिरीश पंकज: श्मशान वैराग्य शब्द से तो परिचित था, पर पिछले दिनों एक और अद्भुत शब्द से परिचय हुआ- 'श्मशान-बंधु'। एक मित्र लेखक के निधन पर श्मशान घाट पहुंचा था। वहां सब गंभीर भाव से बैठे जलती चिता को देख कर श्मशान वैराग्य के भंवर में गोते लगा रहे थे। आदमी जितनी देर श्मशान घाट में रहता है, वैराग्य-भाव से गुजरता रहता है। कुछ लोग आपस में बातचीत भी कर रहे थे, लेकिन काफी धीमे स्वर में, क्योंकि श्मशान घाट का अपना एक अनुशासन होना ही चाहिए। वैसे संभव हो तो मौन रहना सबसे अच्छी बात। पारसियों के कब्रिस्तान के बाहर ही लिखा रहता है 'टावर आफ साइलेंस' यानी वहां आपको पूरी तरह मौन रहना है।

जीवन की सच्चाई है कि जो आया है, उसकी एक दिन मृत्यु होगी। बेशक हम जन्म का उत्सव तो मनाएं, लेकिन कुछ पल के लिए मौन रह कर उस आत्मा को सच्ची श्रद्धांजलि देने की कोशिश जरूर करें, जो अब हमारे बीच नहीं रही। ऐसे लोग सच्चे श्मशान-बंधु कहलाने के हकदार होंगे। वरना तो पाखंड हमारी फितरत में है। शायद इसीलिए अनेक लोग श्मशान घाट में भी हंस-हंस कर बतियाते देखे जा सकते हैं।

ये लोग जीवन-मृत्यु के दर्शन को समझने वाले कोई महापुरुष नहीं, बल्कि दिखावे के लिए उपस्थित लोग होते हैं। कुछ लोगों का चेहरा देख कर समझ में नहीं आता कि वे शवयात्रा में आए हैं या किसी विवाह समारोह में। जबकि बंगाली समाज में इस अनुशासन का अब तक पालन किया जाता है, जहां पूरी तरह मौन धारण करके अंत्येष्टि संपन्न कराई जाती है। मुझे लगता है, हम सबको, हर समाज के व्यक्ति को सच्चा श्मशान-बंधु बन कर संवेदनशील इंसान होने का परिचय देना चाहिए।

हम अंत्येष्टि में मौन खड़े थे। तभी एक सज्जन आए और पानी की छोटी बोतल दे गए। यहां तक तो ठीक था, क्योंकि गर्मी के मौसम में गला सूखता ही है। मगर कुछ देर बाद एक दूसरे सज्जन एक दोने में रखे समोसे और गुलाब जामुन के साथ मेरे सामने आ गए। यह दृश्य अप्रत्याशित था। उन सज्जन ने कहा, 'इसे ग्रहण कीजिए!' मैंने कहा, 'श्मशान घाट में यह कैसे संभव है कि सामने चिता जल रही है और मैं कुछ खा लूं?' मेरी बात सुन कर पास खड़े मृतक के बेटे ने कहा, 'अंकल, यह एक परंपरा है।

जो शवयात्रा में शामिल होते हैं, उन्हें हम श्मशान-बंधु कहते हैं। यह सदियों पुरानी परंपरा है कि श्मशान-बंधुओं को कुछ न कुछ जलपान कराया जाता है। इससे मृत आत्मा को संतोष होता है, इसलिए आप इनकार न कीजिए।' उसकी बात सुन कर मैंने समोसे का एक टुकड़ा तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाया, तो उसने कहा, 'नहीं, आप गुलाब जामुन लीजिए। पिताजी को मीठा बहुत पसंद था। इनकार न कीजिए, प्लीज!' मैंने बेमन से आधा गुलाबजामुन ग्रहण किया।

यह जीवन का पहला अवसर था, जब श्मशान घाट में कुछ खाया। लेकिन उस दिन से लगातार मेरे दिमाग में यह बात रह-रह कर गूंजती रही कि विभिन्न समाजों में कैसी अलग-अलग और अद्भुत परंपराएं कायम हैं, जिनके व्यावहारिक भाव-पक्ष को समझ कर अपने पुरखों की सोच पर श्रद्धा टपकती है। वैसे सोचें तो श्मशान घाट में कोई नाश्ता कैसे कर सकता है, लेकिन एक पक्ष यह भी है कि वहां आए लोगों को घंटों बैठना पड़ता है, इसलिए स्वाभाविक है कि उनको भूख-प्यास भी लगेगी, इसलिए जलपान का भी प्रबंध हो।

सदियों पहले जब हर तरफ जंगल ही जंगल थे। बस्तियां कम हुआ करती थीं, तब किसी की मृत्यु के बाद नदी किनारे उसकी अंत्येष्टि की जाती थी। जंगल में राह न भटक जाएं, इसलिए चलते वक्त शव पर लाई छिड़कते जाते थे, ताकि अंत्येष्टि के बाद जब वापस लौटें तो रास्ता न भूल जाएं। लाई का रंग सफेद होता है और वह रास्ते में आसानी से नजर आ जाती है।

यह परंपरा आज भी जारी है। बंगाली समाज में एक और प्रथा है कि जब तक चिता पूरी तरह ठंडी न हो जाए, तब तक परिजन श्मशान में ही रहते हैं। बाकी सबसे आग्रह किया जाता है कि आप लोग चिता को प्रणाम करके घर जा सकते हैं। परिजन चिता ठंडी होने के बाद राख-हड्डियां समेट कर ही घर जाएंगे। पहले चिता बनाने के लिए बाकी लोग जंगल जाकर लकड़ियां काटते थे। शव की देखरेख के लिए एक व्यक्ति पास ही बैठा रहता था। हालांकि अब तो विद्युत शवदाह गृह हो गए हैं, हम शहरों में रहते हैं। मगर जो कुछ परंपराएं हैं, उनका निर्वाह आज भी समाज के लोग करते हैं।

मुझे लगता है, कुछ परंपराएं बनी रहनी चाहिए। ये परंपराएं ही हमारे भीतर के मनुष्य को जिंदा रखती हैं। मृत्यु भोज की प्रथा अनेक समाजों में खत्म हो गई है, लेकिन श्मशान-बंधुओं को बुला कर उन्हें मिठाई खिलाने के परंपरा आज भी कायम है। यह जीवन के 'मधुरेण समापन' को भी तो दर्शाने वाला है।


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