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सम्पादकीय
आज सार्वजनिक मंचों से ऐसी बातें कही जा रही हैं, जो परदे के पीछे भी नहीं कही जाती थीं
Gulabi Jagat
30 April 2022 8:42 AM GMT
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ओपिनियन
शशि थरूर का कॉलम:
जब मुझसे पूछा जाता है कि क्या आज भारत में सामाजिक खाई बढ़ती जा रही है, तो मैं तुरंत उन त्रासदियों के बारे में नहीं सोच पाता, जो इस तरह के प्रश्न को जन्म देती हैं- साम्प्रदायिक दंगे, मॉब लिन्चिंग, हिजाब, हलाल, अजान के लाउडस्पीकरों पर विवाद आदि- जिनका मकसद मुस्लिम समुदाय को हाशिए पर धकेलना है। इसके बजाय मैं उन दो वाकियों के बारे में सोचने लगता हूं, जिनकी तरफ हाल ही में मेरा ध्यान खिंचा। इन्होंने उस बढ़ती हुई खाई को मेरे सामने कहीं अधिक स्पष्टता से चित्रित किया है।
पहला एपिसोड : हाल ही में जयपुर में मेरी मुलाकात लेबनान की एक महिला से हुई, जो बीते पंद्रह वर्षों से हस्तशिल्प और ज्वेलरी की डील्स के लिए भारत आ रही थीं। उनके बालों का रंग भूरा था और उन्हें देखते ही मालूम होता था कि वे विदेशी हैं। अतीत में हमेशा उनका स्वागत किया जाता रहा था। जब वे नूर के रूप में अपना परिचय देती थीं तो उनसे कहा जाता था कि कितना प्यारा नाम है, हमारे यहां भी ऐसा ही नाम हुआ करता है, हमें नूर शब्द का मतलब भी पता है- रोशनी।
लेकिन वे कहती हैं कि आज चीजें बदल गई हैं। आज जब वे अपना नाम बताती हैं तो उनसे पूछा जाता है- ओह, तो क्या आप मुस्लिम हैं? यह प्रश्न जिस लहजे में पूछा जाता है, वह पूरी कहानी खुद ही बयां कर देता है। अब वे सोच रही हैं कि शायद वे पहले की तरह नियमित रूप से भारत नहीं आएंगी।
दूसरा एपिसोड : एक पूर्व भारतीय राजदूत- जिन्होंने पाकिस्तान मामलों और इस्लामिक आतंकवाद के विशेषज्ञ के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बनाई थी- ने मुझे अपने एक दोस्त के बारे में बताया। वे काबुल के एक प्रतिष्ठित सर्जन हैं। अपने देश में तालिबान के बढ़ते प्रभाव से वे चिंतित थे और मेरे पूर्व राजदूत मित्र की सलाह पर उन्होंने पत्नी और बच्चों को भारत भेजने का निर्णय लिया (याद रहे उन्होंने उन्हें पाकिस्तान नहीं भेजा)। उन्होंने गुड़गांव में एक फ्लैट किराए पर लिया और बच्चों का नामांकन एक अच्छे स्कूल में कराया।
लेकिन एक साल बाद ही उन्हें महसूस हो गया कि अब यह पहले जैसा भारत नहीं रह गया है। उन्हें सबसे गहरा आघात तब पहुंचा, जब उनके अपार्टमेंट में रहने वाले उनके बच्चों के दोस्तों ने कहा कि हमारे पैरेंट्स ने हमें आपके बच्चों के साथ खेलने से मना किया है, क्योंकि आप मुसलमान हैं। यह वाकया सुनाए जाने पर मेरे पूर्व राजदूत मित्र शर्मिंदा हो गए। उन्होंने उन्हें सलाह दी कि बेहतर होगा वे अपने बच्चों को दुबई या लंदन ले जाएं।
मैं जानता हूं कि महज दो वाकियों के आधार पर आप किसी परिघटना का विश्लेषण नहीं कर सकते। लेकिन एक-दूसरे से पृथक हाल ही की ये घटनाएं इस सच को उजागर करती हैं कि समाज में साम्प्रदायिक विभेद बहुत बढ़ गया है। आज सार्वजनिक मंचों से ऐसी बातें कही जा रही हैं, जिन्हें अतीत में परदे के पीछे भी कहा जाना उचित नहीं समझा जाता था। हेट-स्पीच इतनी आम हो चुकी हैं कि अब उन पर कोई चकित नहीं होता।
एक समय था जब देश की केंद्र और राज्य की सरकारें कौमी एकता के प्रदर्शन के लिए कोशिशें करती थीं, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता। हिंसा की घटनाएं होने पर उन्हें भड़काने वालों पर कार्रवाई नहीं की जाती। अधिकारीगण इन घटनाओं की निंदा तक नहीं करते हैं। मैं एक ऐसे भारत में बड़ा हुआ था, जहां गंगा-जमुनी तहजीब का उत्सव मनाया जाता था। लेकिन आज राष्ट्रवाद का मतलब बहुसंख्यकवाद होकर रह गया है।
वहीं राष्ट्रीय एकता से आशय यह लगाया जाने लगा है कि वर्चस्वशाली समुदाय के नैरेटिव को सभी स्वीकार कर लें। पहले 'अमर अकबर एंथनी' जैसी फिल्मों को मनोरंजन-कर से मुक्त किया जाता था, जिसमें यह दर्शाया जाता था कि अपने माता-पिता से बिछड़े तीन बच्चों को हिंदू, मुस्लिम और ईसाई परिवारों के द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया गया है। पहले दुनिया में इस बात के लिए हमारी इज्जत की जाती थी कि भारत के मुसलमान गर्व से हिंदुस्तान को अपना मुल्क बताते हैं और हमारी सफलताओं में उनका भी योगदान है।
हम भी विदेशियों को नाज से बताते थे कि भारत में 18 करोड़ मुसलमान हैं, लेकिन तालिबान और अलकायदा से सहानुभूति रखने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। लेकिन आज खाई ना केवल गहरा गई है, उसने हमारे समाज को भी बदला है। हम आशा ही कर सकते हैं कि आने वाला दौर हमें एकता की ओर ले जाएगा, विखंडन की ओर नहीं।
ध्रुवीकरण के राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए जिस विषबेल को पोसा गया था, वह अब नियंत्रण के बाहर हो चुकी है। हमारे समाज में नफरत भर रही है और हम वह बनते जा रहे हैं, जो कि हम कभी नहीं थे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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Gulabi Jagat
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