सम्पादकीय

चीन को सबक सिखाने का समय: जिन शक्तियों ने चीन को जगाकर विश्व को आतंकित कराया, आज उन्हीं की जिम्मेदारी है उसकी औकात दिखाएं

Gulabi
5 Jun 2021 5:50 AM GMT
चीन को सबक सिखाने का समय: जिन शक्तियों ने चीन को जगाकर विश्व को आतंकित कराया, आज उन्हीं की जिम्मेदारी है उसकी औकात दिखाएं
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आज पूरा विश्व चीन से प्रताड़ित है और उत्तर कोरिया, तुर्की एवं पाकिस्तान को छोड़कर उसके खिलाफ कार्रवाई चाहता है,

प्रो. कपिल कुमार : आज पूरा विश्व चीन से प्रताड़ित है और उत्तर कोरिया, तुर्की एवं पाकिस्तान को छोड़कर उसके खिलाफ कार्रवाई चाहता है, परंतु इसके पहले यह जानना आवश्यक है कि चीन विश्व का सशक्त महाजन और दूसरों की भूमि हड़पने वाला देश कैसे बना? दरअसल शीत युद्ध काल में रूस को रोकने के लिए पश्चिमी शक्तियों ने चीन को एक मोहरा समझकर उसे प्रोत्साहित किया, परंतु ये देश नेपोलियन के शब्द भूल गए कि चीन एक सोता हुआ ड्रैगन है। इसे जगाना मत, वरना सारे विश्व को झकझोर देगा। वास्तव में चीन यह समझ चुका था कि रूस की क्रांति करने के हथकंडे विफल हुए और उसे ले डूबे। इसलिए सैनिक क्षमता के साथ-साथ आर्थिक शक्ति बनना भी उसके लिए आवश्यक है। इसी क्रम में लोभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन को उत्पादन के लिए अपनी कर्म भूमि बनाया। चीन में मजदूरों को कोई अधिकार तो है नहीं, सो उन्हेंं वहां भरपूर मुनाफा कमाने का मौका दिखा। उन्हें हड़ताल का डर भी नहीं था, पर वे यह भूल गईं कि इस प्रक्रिया में चीन को एक आर्थिक शक्ति बना रही हैं। जाहिर है कुछ पश्चिमी देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने यदि अपनी नीतियां नहीं बदलीं तो चीन चंद कट्टर आतंकी देशों से साठ-गांठ कर दुनिया को आर्थिक और मानसिक दास बनाने की स्थिति में पहुंच सकता है। चीनी युद्ध सामंत माओ ने 1949 में ही चीन को महाशक्ति बनाने का जो सपना देखना प्रारंभ किया था, उसे अब शी चिनपिंग साकार करने का भयंकर प्रयास कर रहे हैं।

चीन ने इस्लामी मुल्कों, संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर बिछाई शतरंज की एक बिसात
चीन ने पहले अपने पड़ोसी देशों की जमीनें हथियाकर अपनी सीमाओं को सुरक्षित किया, फिर अविकसित देशों को कर्ज देकर उन्हेंं अपने जाल में फंसाना शुरू किया। तिब्बत पर सबकी चुप्पी और नेहरू काल में भारत द्वारा चीन को हर अंतरराष्ट्रीय संगठन में समर्थन का मुआवजा तो भारत ने भुगता ही, पर बाकी विश्व भी सोता रहा। पाकिस्तान तो शुरू से ही चीन का एक प्रांत बनकर रहा। तालिबान और अलकायदा के उद्भव के बाद चीन ने अपना ध्यान उधर लगाकर कट्टरपंथियों को मौसेरा भाई बना लिया। इसका सुबूत है उइगर मुसलमानों पर चीन के अत्याचार, इस पर इस्लामी मुल्कों की चुप्पी और संयुक्त राष्ट्र या अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इनकी साठगांठ। चीन ने इन सबके साथ मिलकर शतरंज की एक बिसात बिछाई।
सांस्कृतिक और शैक्षिक साम्राज्यवादी बनने का प्रयास
चीन इस समय उदारीकरण का लाभ उठाकर सांस्कृतिक और शैक्षिक साम्राज्यवादी बनने का भी प्रयास कर रहा है। शिक्षा के निजीकरण से पैसे का जो लोभ पश्चिम के शिक्षा संस्थानों में आया, उसमें मौका देखकर चीन ने अपने लाखों विद्यार्थी वहां भेज दिए। यही नहीं उसने कई विश्वविद्यालयों में अपने पैसे से चेयर स्थापित करवाए और कई देशों में सांस्कृतिक केंद्र भी खोले। लोग समझते रहे कि चीन उदारीकरण के रास्ते पर है, परंतु वे चीन के असली मंसूबों को समझने में असफल रहे। सच्चाई तो यह है कि चीनी साम्यवादी अधिनायकवाद में कोई भी विद्यार्थी या शिक्षक बिना साम्यवादी दल की अनुमति के विदेश नहीं जा सकता। जिन्हेंं बाहर भेजा जाता है, उनका पूरी तरह ब्रेनवाश किया जाता है। मजे की बात यह है कि चीनी सरकार खुद अवैधानिक तौर पर भी अपने नागरिकों को इन देशों में भेज रही थी। 1949 में जो चीनी माओ के डर से पलायन कर गए थे, वे भी बाद में चीनी सरकार के समर्थक और प्रशंसक बन गए।
चीन 1999 से जैविक युद्ध की तैयारी कर रहा था
चीन लगातार अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाता रहा। अपना दमखम वह आए दिन अपने पड़ोसियों को दिखाता रहा। उसका उद्देश्य एक ही था आर्थिक और भौगोलिक विस्तार। इन सभी तैयारियों के बावजूद चीन यह समझ चुका था कि वह केवल सैन्य और आर्थिक शक्ति के आधार पर ही विश्व में अपना वर्चस्व नहीं जमा सकता। ट्रंप के काल की अमेरिका की आर्थिक नीतियों ने इस धारणा को और मजबूत किया। तब चीन के आजीवन सम्राट चिनपिंग ने एक नया पासा फेंका। आज ऐसे तथ्य सामने आ चुके हैं कि 1999 से ही चीन जैविक युद्ध की तैयारी कर रहा था। पश्चिमी ताकतें और कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां जाने- अनजाने इसमें भी चीन की मदद कर रही थीं। इसका जीता-जागता प्रमाण है वुहान की वह प्रयोगशाला, जिसे स्थापित करने में उन्होंने चीन की मदद की और वहां पर किए जा रहे शोध को बढ़ावा दिया।
चीन ने चुपचाप कोरोना का जैविक हथियार छोड़ दिया, विश्व को समझने में बहुत देर हुई
इस बाजी को जीतने के लिए चीन ने तीन चालें चलीं। सबसे पहले उसने कई देशों में साम्यवाद समर्थक अपने प्यादों को आगे बढ़ाया। यह आशंका है कि अमेरिका, फ्रांस और भारत जैसे कई देशों में हुई हिंसा के पीछे चीन समर्थक तत्व हो सकते हैं। पाकिस्तान और तुर्की की मदद से कट्टर धर्मावलंबियों ने भी चीन का साथ दिया। दूसरा पासा चीन ने अपनी सैन्य शक्ति का झांसा दिखाकर किया। कभी दक्षिण चीन सागर में अपने युद्धपोत भेजे, कभी ताइवान और जापान के पास लड़ाकू विमान, कभी अमेरिका को धमकी दी और कभी लद्दाख और गलवन में उपद्रव किया। सारी दुनिया के राजनीतिज्ञ और मीडिया यही कहते रहे कि युद्ध होने जा रहा है। अंदेशा है कि इसी दौरान चीन ने चुपचाप कोरोना का जैविक हथियार छोड़ दिया। जब तक विश्व को यह समझ आता तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
चीन को सबक सिखाने के लिए आर्थिक और वैज्ञानिक बहिष्कार करना होगा
यदि चीन की हरकतों के लिए उसे तुरंत सबक नहीं सिखाया गया तो विश्व का क्या हाल होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले चीन का आर्थिक और वैज्ञानिक बहिष्कार करना होगा। क्या अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके लिए तैयार हैं? दूसरा, चीन के सभी पड़ोसी देशों को उसकी विस्तारवादी नीतियों के विरुद्ध आपस में मिलकर उसे वापस चीन की दीवार के अंदर भेजना होगा, जो कि उसकी मूल सीमा है। तीसरा, आतंक को बढ़ावा देने वाले उद्योगों को आर्थिक और सैनिक, दोनों ही प्रकार से ध्वस्त करना होगा। चौथा, चीन की जनता को उनके अधिकारों और स्वतंत्रता से अवगत कराना होगा, जिससे वे साम्यवादी फासीवाद से मुक्ति पा सकें।
चीन का इलाज गांधीवाद से नहीं, बल्कि सुदर्शन चक्र से किया जा सकता है
साफ है कि जिन शक्तियों ने ड्रैगन को जगाकर सारे विश्व को आतंकित कराया, आज उन्हीं शक्तियों की यह जिम्मेदारी है कि चीन को उसकी औकात दिखाएं। चीनी सेना को गलवन में पीटकर, कई चीनी एप बंदकर भारत ने विश्व को एक रास्ता दिखाया है। विश्व को यह समझ लेना चाहिए कि चीन का इलाज गांधीवाद से नहीं, बल्कि सुदर्शन चक्र से ही किया जा सकता है।
( लेखक इतिहासकार एवं नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में सीनियर फेलो हैं )


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