सम्पादकीय

घाट पर्यटन तक

Rani Sahu
27 Sep 2021 7:01 PM GMT
घाट पर्यटन तक
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पिछले दिनों गणेशोत्सव ने पुनः हिमाचल के सांस्कृतिक संगम में डुबकी लगाई और इस तरह कोविड काल के घने कोहरे के बीच समाज के सरोकार प्रतिध्वनि पैदा कर गए

पिछले दिनों गणेशोत्सव ने पुनः हिमाचल के सांस्कृतिक संगम में डुबकी लगाई और इस तरह कोविड काल के घने कोहरे के बीच समाज के सरोकार प्रतिध्वनि पैदा कर गए। सवाल यह नहीं कि इस रौनक के बीच महामारी के खतरे कितने बढ़े, लेकिन यह जरूर रहा कि हमारा प्रदेश गणेशोत्सव को किस नजरिए से देख रहा है। इसके साथ एक नया सांस्कृतिक उजास ही पल्लवित नहीं हो रहा, बल्कि सामुदायिक-उल्लास का सहचर्य भी दिखाई देने लगा है। उत्सव की रोशनी में गणेश वंदना, मूर्तियों का कलात्मक प्रसार तथा बाजार उभर रहा है। गणेश मंडल धीरे-धीरे ग्रामीण स्तर पर पहुंचकर एक नया सांस्कृतिक भाईचारा जोड़ रहे हैं। हिमाचल का उत्सवी माहौल अब केवल रौनक नहीं, सांस्कृतिक रोमांच और मनोरंजन की विधा भी है। पिछले कुछ वर्षों में छठ पूजन, डांडिया महोत्सव, क्रिसमस और गणेशोत्सव जैसे अपरिचित त्योहार अब हिमाचल की विविधता से जुड़ कर वार्षिक कैलेंडर बना रहे हैं।

इन सभी त्योहारों की जरूरतों में सामाजिक उत्कंठा का भी योगदान है, लेकिन इन्हें पर्यटन की दृष्टि से परिमार्जित करना होगा। छठ पूजा व गणेशोत्सव की निजी तैयारियों के साथ-साथ सार्वजनिक हस्तक्षेप की जरूरत इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि इनके साथ प्रमुख नदियां व खड्डें भी जुड़ रही हैं। ऐसे में ये त्योहार घाट पर्यटन को आवाज दे रहे हैं, ताकि गणेश विसर्जन के लिए आवश्यक स्थान सुनिश्चित करने के साथ-साथ इन्हें सुरक्षित आकार दिया जाए। हिमाचल के मंडी, नादौन, कांगड़ा, चामुंडा, सुजानपुर व तमाम ऐसे कस्बों व शहरों में घाटों का निर्माण करना होगा, जहां से कोई नदी, सहायक नदी या खड्ड बहती हो। तत्तापानी के आसपास विकसित हुए घाट इस दिशा में प्रशंसनीय हैं, लेकिन मंडी में गणेशोत्सव व ब्यास आरती के अलावा मंदिरों की पृष्ठभूमि में बहती ब्यास नदी के तटों पर घाटों की शक्ल में पर्यटन आकर्षण विकसित किए जा सकते हैं। इसी तरह कांगड़ा बाइपास के साथ गुजरती बनेर खड्ड को अगर घाटों के आकार में विकसित किया जाए, तो साथ लगती सार्वजनिक व वनभूमि नए पर्यटन का ईको सिस्टम पैदा कर सकती है। हिमाचल के उत्सवी माहौल को पर्यटन से जोड़ने की जरूरत है और इसके लिए मंदिर परिसर भी प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं।
प्रमुख मंदिर परिसरों को हिमाचल के सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में विकसित करते हुए, इन्हें लोक कलाकारों के प्रदर्शन का जरिया बना सकते हैं। ज्वालामुखी मंदिर में स्थानीय लोक गायकों द्वारा भजन-कीर्तन के परंपरागत कार्यक्रम वर्षों से चल रहे हैं, अगर इन्हें परिष्कृत आकार दिया जाए और हर मंदिर परिसर में सभागार उपलब्ध हों, तो पूरे हिमाचल का संगीत, नाट्य कलाएं, नृत्य कलाएं और लोक संस्कृति के रोजाना लाइव शो चल सकते हैं। इसी तरह धरोहर स्थलों पर विशेष उत्सवों की शुरुआत करनी होगी। केवल एक बार मसरूर उत्सव व त्रिगर्त समारोह करवाने के बाद सरकारों ने ऐसी कोई परंपरा विकसित नहीं की। कांगड़ा व बैजनाथ के साथ-साथ मंडी के भूतनाथ मंदिर में घृत मंडप को उत्सवी रंग दिया जाए, तो यह परंपरा सैलानियों के लिए वार्षिक समारोह बन सकती है। सुजानपुर की होली में पर्यटन के रंग मिला दिए जाएं, तो यहां प्रदेश का सबसे बड़ा समागम हो जाएगा। हिमाचल में मनोरंजन ढूंढते पर्यटक को हिमाचली उल्लास व रोमांच से रू-ब-रू कराना है, तो राज्य की जल क्षमता का निरूपण करना होगा। भविष्य का पर्यटन ऐसी चहल-पहल में समाहित होगा, जहां कभी सेब, तो कभी चाय उत्सव का निमंत्रण बंटेगा। पौंग, गोविंद सागर तथा कोल जैसे बांधों के विस्तृत आकार में पर्यटन के कई उत्सव व डेरे विकसित हो सकते हैं और जहां तत्तापानी जैसे घाट सीधे रोमांच के हस्तक्षेप बन जाएंगे।

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