सम्पादकीय

परेशान करने वाली तीन रिपोर्ट : नीतिगत निष्क्रियता का हासिल

Neha Dani
4 Dec 2021 1:50 AM GMT
परेशान करने वाली तीन रिपोर्ट : नीतिगत निष्क्रियता का हासिल
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मोहताज मुल्क के तौर पर होने लगे, हमें अपनी नीति, राह और सोच बदल लेनी चाहिए।

नवंबर महीने की शुरुआत में, तीन परेशान करने वाली रिपोर्ट सामने आईं। 54.6 लाख भारतीयों ने अक्तूबर में अपनी नौकरी गंवा दी। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, विशेष रूप से 2016-17 के 15.66 फीसदी की तुलना में 2020-21 में हमारी युवा बेरोजगारी दर 28.26 फीसदी थी। अगस्त 2021 तक देश के सभी रोजगार योग्य युवाओं में से 33 फीसदी के बेरोजगार होने का अनुमान लगाया गया था। दो करोड़ भारतीय सालाना नौकरी के बाजार में प्रवेश कर रहे हैं, जाहिर है कि इसके मुकाबले नौकरियां कुछ ही पैदा हो रही हैं।

रोजी-रोजगार के लिहाज से अनौपचारिक क्षेत्र देश में एक स्वाभाविक ताकत (बैकअप) है। पर नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन के कारण इसकी भी स्वाभाविकता पर खतरा बढ़ा है। इस दौरान निश्चित रूप से भारत ने एक प्रतिस्पर्धी रेडीमेड गारमेंट उद्योग विकसित करके लाखों रोजगार सृजित करने के अवसर का लाभ उठाया है। खासतौर पर 2019-20 में परिधान निर्यात 27.95 अरब डॉलर का हुआ। यह आंकड़ा बांग्लादेश की बराबरी का है। पर यह संभावना और दरकार के लिहाज से मामूली उपलब्धि है।
देश के सूक्ष्म, लघु और मझोले आकार के अनौपचारिक क्षेत्र के उद्योगों को प्रोत्साहित करके बड़ी कामयाबी हासिल की जा सकती थी, क्योंकि यूरोप, कनाडा और अमेरिका के साथ व्यापार सौदों के तहत एक बड़े बाजार तक पहुंच की संभावना पहले से है। पर जो हालात हैं, उसमें सुधार के आसार नहीं दिख रहे हैं। आलम यह है कि 2015 और 2019 के बीच भारत का कपड़ा निर्यात लगभग सपाट रहा। जाहिर है कि यह नीतिगत निष्क्रियता का हासिल है।
1.2 करोड़ नौकरियां (तीस लाख प्रत्यक्ष और नब्बे लाख अप्रत्यक्ष, विश्व बैंक, 2017) पिछले एक दशक में चीन से बांग्लादेश में स्थानांतरित हो गई हैं। भारत इस अनुकूलता का लाभ उठाता, तो देश में 'टेक्सटाइल ईकोसिस्टम' में अपेक्षित सुधार संभव था। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। जो हालात हैं, उनमें कानपुर जैसे शहरों में 'लाल इमली' जैसी बड़ी मिल जंग खा रही है। ऐसी बड़ी मिलों की यह दुर्दशा बार-बार इस नाकामी की याद दिलाती हैं कि भारत अगला चीन हो सकता था।
इस बीच, भारतीयों के लिए दैनिक आवागमन का खर्च जेब पर खासा भारी पड़ रहा है। नवंबर में ज्यादातर शहरों में पेट्रोल की कीमत सौ रुपये प्रति लीटर से ऊपर पहुंच चुकी थी। ब्लूमबर्ग के इसी साल जून के एक आंकड़े के मुताबिक ईंधन की कीमतों में यह तेज उछाल करों में भारी वृद्धि के कारण है। पेट्रोल पर तीन गुना और डीजल पर सात गुना कर बीते सात सालों में बढ़े हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को अपेक्षित तौर पर बढ़ाने से स्थिति में फर्क पड़ सकता है।
एक आकलन के मुताबिक अगर सब कुछ उम्मीद के मुताबिक रहे, तो 2030 तक देश में तेल के उपभोग को 15.6 करोड़ टन यानी 3.5 लाख करोड़ रुपये तक कम करने में मदद मिलेगी। इस तरह के उपायों के जरिये देश में औसत आय का 17 फीसदी सालाना तक बचाया जा सकता है। इन सबके अलावा देश में रसोई का खर्च बीते कुछ सालों में खुदरा महंगाई बढ़ने से बेतहाशा बढ़ा है। इस साल जनवरी से अक्तूबर के बीच रसोई गैस के दामों में 30 फीसदी का इजाफा हुआ है।
इस दौरान खाद्य तेलों के विभिन्न प्रकार की कीमतों में भी भारी वृद्धि हुई है। अकेले देश की राजधानी की बात करें, तो यहां जून, 2020 से जून, 2021 के बीच पैकेज्ड सरसों और वनस्पति तेल की कीमत 30 फीसदी, जबकि सूर्यमुखी के तेल की कीमत में 40 फीसदी तक का उछाल आया है। कीमतों में इस अनपेक्षित वृद्धि का एक कारण पाम ऑयल के आयात पर निर्भरता है। दिलचस्प है कि बाकी तेल के मामले में भारत 1990 के दशक से ही आत्मनिर्भरता की स्थिति को प्राप्त कर चुका है।
कीमतों में वृद्धि की यह स्थिति बायोडीजल को तरजीह देने से भी बनी है। जोर इस बात पर भी होना चाहिए कि पाम ऑयल के आयात पर कर-शुल्कों में कमी लाई जाए। साथ ही अगर स्थानीय उत्पाद (खासतौर पर सरसों और सूर्यमुखी के तेल) की खपत बाजार में बढ़ाने के लिए अभियान चलाए जाएं, तो विश्व बाजार से नियंत्रित होने वाली कीमतों से निपटने में कारगर मदद मिलेगी। महंगाई का तो आलम यहां तक पहुंच गया है कि आम इस्तेमाल में आने वाली साग-सब्जी के दाम भी बेतहाशा बढ़े हैं।
सितंबर महीने तक 28 रुपये किलो मिलने वाले टमाटर का भाव नवंबर में 54 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गया है। ज्यादातर सब्जियों के भाव अक्तूबर में 14.2 फीसदी तक बढ़े हैं। महंगाई के इस प्रसार से नेस्ले, पारले, आईटीसी जैसी कंपनियों के भी रोजमर्रा के इस्तेमाल वाले उत्पाद अछूते नहीं हैं। पिछले साल नवंबर के मुकाबले एक साल में इनके या तो 20 फीसदी तक दाम बढ़े हैं या फिर इनकी पैकिंग का वजन और आकार कम हो गया है।
इन तमाम स्थितियों ने मिलकर भारतीयों को और गरीब बना दिया है। हालात से निपटने के लिए इस दौरान आम भारतीयों ने बड़े पैमाने पर निजी कर्ज का सहारा लिया है। कोविड-19 से पहले 2012 और 2018 के बीच, ऋणग्रस्त भारतीय परिवारों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। 2018 में 35 फीसदी ग्रामीण परिवार 22.4 फीसदी शहरी परिवार कर्ज की चक्की में पिसने को मोहताज हुए। आलम यह हुआ कि औसत ग्रामीण परिवार पर 59,728 रुपये तो औसत शहरी परिवार पर इसके दोगुना कर्ज का बोझ आ गया।
परिवारों की खस्ताहाली इस सूरत तक पहुंच गई कि लोगों को घर के जेवर तक गिरबी रखने पड़ रहे हैं। इस तरह के बकाया कर्ज का आंकड़ा अगस्त 2020 से जुलाई 2021 तक चढ़कर 77.4 फीसदी तक पहुंच गया। यह सब देश में गरीबी के एक गहरे और व्यापक दुष्चक्र को रच रहा है। इस दुरावस्था का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गरीब भारतीयों की संख्या (जिनकी क्रय शक्ति प्रतिदिन दो डॉलर से कम या उसके बराबर दैनिक आय हो) 2020 में 5.9 करोड़ से बढ़कर 2021 में 13.4 करोड़ तक पहुंच गई है।
स्थिति में सुधार के लिए नए सिरे से पहल करनी होगी। खासतौर पर कॉरपोरेट राहत के बजाय आमलोगों के कर राहत के बारे में सोचना होगा। रिजर्व बैंक को क्रिप्टोकरेंसी पर बहस करने, मुद्रास्फीति नियंत्रित करने पर जोर देने के बजाय रोजगार बढ़ाने की नीति अपनानी होगी। इससे पहले कि भारत की शिनाख्त दक्षिण एशिया के सबसे गरीब और मोहताज मुल्क के तौर पर होने लगे, हमें अपनी नीति, राह और सोच बदल लेनी चाहिए।
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