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- फिर बैतलवा डाल पर
सुरेश सेठ: लगा था कि इस बार शायद ऐसा नहीं होगा। पौन सदी कम नहीं होती। आदमी की जिंदगी हो तो इसमें लगभग खप ही जाती है। देश की हो तो भी उसे उसका रौशन काल नहीं कह सकते। अव्वल तो इनसे मिलने का मौका ही नहीं मिलता। प्राय: वे अपने हवाई मीनार में रहते हैं।
पर इनके मीनार को देखते हुए सोचते हैं कि नहीं, इस बार सपनों का शहजादा अवश्य अपने घोड़े से उतर आएगा। हमारे गर्दो-गुब्बार में हमारे संग चलेगा। हमारे दर्द को गले लगाएगा। हम इकट्ठे चल कर इन टूटी-फूटी सड़कों या भूली पगडंडियों की जगह एक नए जनपथ का निर्माण कर सकेंगे। इस पर सबको बराबर-बराबर चलने का हक होगा। इस पौन सदी में हमने हर जनपथ को 'शार्टकट' बना कर सफलता की पगडंडी में बदलते देखा है।
इस पगडंडी का रास्ता कूड़े के उपलों को नकारने में नहीं, बल्कि उसकी जगह मन-भावन कलई करके स्वच्छ भारत सिद्ध कर देने की मुस्कराती घोषणा के साथ होता है। चुंधियाई हुई आंखों से देखते हैं कि कल जो ढूह था, किसी चोर गली के रास्ते सिंहासन में तब्दील हो गया। उस पर वे जम गए हैं, आवारा सपनों के उस मसीहा की तरह, जिसने पगडंडी बदलते हुए उनके सपने तो किसी भूल-भुलैया में खो दिए, और अपने दावों की विजयश्री के साथ अपनी शोभा को हमारी शोभायात्रा बनाने पर तुला हुआ है। लेकिन कतार में खड़े आखिरी आदमी की भी कोई शोभायात्रा होती है?
उनका जिम्मा तो यही है कि वे फुटपाथ पर उपेक्षित खड़े इस शोभायात्रा का जयघोष करें और उसके बाद और भी अकेले होकर किसी नई शोभायात्रा का इंतजार करें, जहां के मसीहा उन्हें एक और नए सपनों की चकाचौंध भेंट कर देंगे। वह चकाचौंध, जो इतनी जल्दी मुरझा जाती है कि फुटपाथों का अंधेरा और बढ़ जाता है।
हम उन स्मार्ट शहरों में अपनी बना दी गई शोभायात्राओं को तलाशते हैं, जो बिन बादल बरसात से उमड़ आए गले-गले पानी में डूबती-उतराती उस जीवन नौका की तलाश करती है, जो हमें आदमी, इन्सानियत और पवित्र डुबोती इस जल प्रलय में से निकाल कर किसी सूखी धरती पर खड़ा कर दे। पचहत्तर बरस बीत गए, वह सूखी धरती हमें कहीं मिली नहीं।
यह चिल्लाहट कहती थी कि आपसे जो पौन सदी से नहीं हो सका, वह चंद बरस में कर दिखाया। आप बैंकों की ओर देखने की हिम्मत नहीं कर सकते थे, हमने करोड़ों की संख्या में आपके खाते खोल दिए। वादा किया, आपका भुगतान सीधा अब आपके खाते में जाएगा। बीच के मध्यजनों की धांधली और दलाली खत्म हो जाएगी। मगर साहिब, नीचे के ये लोग बड़े शक्तिमान हैं।
आपके खाली खाते आप से नए युग का वादा करते रहते हैं, लेकिन सौदों में, भुगतान में, बंटवारे में इनकी दलाली का वर्चस्व बना रहता है। नारा समतावादी समाज का लगता है, और नतीजा गरीब के और गरीब और अमीर के और अमीर का आता है।
भई, सदियों का अंधेरा है, एक दिन में तो नहीं छंट जाएगा। जो राजा है वह राजा ही रहता है, और जो रंक हैं, उन्हें अब किसी नई घोषणा से बहलाना है। इसका फैसला तो राजा ही करेगा। आओ, क्यों न इन्हें इस बनते-संवरते समाज का जरूरी हिस्सा घोषित करके कानूनी मान्यता दे दी जाए। सही भी है, सिंहासन भला अपने पायों के बिना टिक सकता है।
ये पाए, जिन्हें सभ्य भाषा में आधार स्तंभ कहते हैं, इनके लिए किराए पर मंच ही नहीं, रैलियां भी जुटाते हैं। पहले अखबार-अखबार घूम कर अपने चित्र और खबरें लगवाते थे, अब इंटरनेट पर एक आभासी दुनिया खड़ी कर देते हैं। भूख, बेकारी, कर्जदारी और बीमारी सच नहीं है, उनके अधूरे फ्लाई ओवरों की तरह आधी राह छूट गए उपचार महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, महत्त्वपूर्ण है यह गौरव कि हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है।
अपने इन सवालों के जवाब न पाकर बैतलवा फिर उसी डाल पर जाकर बैठ जाता है, और आर्थिक विकास की इस दौड़ में ठूंठ रह गए उस मुक्तिवृक्ष में तलाश करता है कि क्या यह वही देश है, जिसकी डाल-डाल पर सोने की चिड़िया बसेरा करती थी? मंदी ग्रस्त इस माहौल से उसे सोन चिरैया तो चहचहाती हुई दिखाई नहीं देती, हां उपवास ग्रस्त, धैर्यवान पंखनुचे कबूतरों के हुजूम अवश्य दिखाई देते हैं, जिन्हें इन पचहत्तर सालों में चुनाव-दर-चुनाव कंजी आंखों वाले चुनिंदा कौए सपनों का कोई न कोई नया बायस्कोप दिखाने लगते हैं।
बीच रास्ते कौओं की डारें बदल गर्इं, बेताल को मुर्दा डालों से उतार कर नए मुक्ति प्रसंग देने के वादे हुए, लेकिन कसमें, वायदे, प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या? बेताल आज भी उसी डाल पर टंगा है। हां निचली डाली पर फंदा लेकर कोई गरीब आदमी मर गया। सरकारी खातों में उसका हिसाब अपच से मरे आदमी की मौत का होता है।