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Written by जनसत्ता; ऐसा लगता है कि राजनीति अब देशसेवा का जरिया नहीं, बल्कि आधुनिक व्यवसाय बन चुका है। वर्तमान लोकतंत्र में केवल विशुद्ध राजनीतिक योग्यता किसी व्यक्ति या संगठन की वह एकमात्र योग्यता नहीं है, जिसकी आवश्यकता इस क्षेत्र में जरूरी हो। अनेक अतिरिक्त 'योग्यताएं' भी राजनीति में आने और स्थान बनाने के लिए आवश्यक हैं। महाराष्ट्र में चल रही जोड़-तोड़ इसकी जिंदा मिसाल है।
वर्तमान परिदृश्य में ऐसा लगता है कि हमारे देश के लोकतांत्रिक मूल्य भी तेजी से परिवर्तित होते जा रहे हैं। आदर्श, नैतिकता, सिद्धांत, आस्था, विचारधारा आदि पुरानी बातें हो चुकी हैं। आज हम व्यवहारिक और व्यावसायिक दुनिया में जी रहे हैं और बचे रहने के लिए इसी के अनुसार आचरण तथा व्यवहार करना आवश्यक हो गया है। कहा भी गया है कि 'कार्य का स्वरूप हमेशा अवसर के अनुरूप होना चाहिए'। यह अलग स्वरूप में महाराष्ट्र में सामने आ रहा है।
आमतौर पर राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद के लिए निर्वाचन के बजाय सर्वसम्मति को अच्छा माना जाता है। मगर देश में कई ऐसे लोग हैं जो किसी भी पद के लिए सर्वसम्मति को स्वस्थ एवं जीवंत लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं मानते हैं। ऐसे में विपक्ष की ओर से गोपाल कृष्ण गांधी, शरद पवार, फारूक अब्दुल्ला के इनकार के बाद यशवंत सिन्हा ने उम्मीदवार बनना स्वीकार किया।
इसके बाद भाजपा की ओर से द्रौपदी मुर्मू उम्मीदवार घोषित की गर्इं, जिससे यह तय हो गया कि देश का अगला राष्ट्रपति निर्वाचन से मिलेगा। लोकतंत्र संख्या बल का खेल है। चुनाव लोकतंत्र का महापर्व है। इसे अनिवार्य तौर पर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पर आधारित होना चाहिए।