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सम्पादकीय
द कश्मीर फ़ाइल्स : राजनीति पर फिल्में नेहरू के समय से बन रही हैं, लेकिन अब कुछ नया हुआ है
Gulabi Jagat
20 March 2022 10:01 AM GMT
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ओपिनियन
अनिमेष मुखर्जी।
इस बार का होली मिलन समारोह कश्मीर फ़ाइल्स (Kashmir Files ) के नाम रहा. चाहे सोशल मीडिया हो या व्हॉट्सऐप मैसेंजर. लोगों को फोन पर बधाई दें या आपस में मिलकर. हर जगह फिल्म (Bollywood) की चर्चा है. या कहें, फिल्म की राजनीति की चर्चा है. खेमे बंट गए हैं और उनके बीच की रेखाएं गहरी हुई हैं. लेकिन! कश्मीर फ़ाइल्स पहली फ़िल्म नहीं है जो राजनीति पर आधारित है. भारत (INDIA) तथा दुनिया भर के तमाम सिनेमा में फ़िल्मों में राजनीति दिखती रही है और राजनीति के दांव-पेचों में तमाम फ़िल्में काम करती रही हैं. हालाँकि, कश्मीर फ़ाइल्स का मुद्दा इससे थोड़ा अलग है. कैसे! आइए जानते हैं.
फिल्मों में राजनीति की जागृति
भारत के आज़ाद होने के बाद फ़िल्म बनती है 'जागृति'. इस फ़िल्म की कहानी इस फ़िल्म के गाने 'लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के', 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की' साफ़-साफ़ लोगों के दिमाग में आज़ाद भारत और उसके सपने के दृश्य भरते हैं. उनके अंदर ज़िम्मेदारी का भाव भरते हैं. जागृति ही नहीं, 'सन ऑफ़ इंडिया' में 'नन्हा मुन्ना राही हूं', 'हम हिंदुस्तानी' का 'छोड़ो कल की बातें', 'श्री 420' का 'सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी'. ये सारी फ़िल्में 1962 के पहले की हैं और ये सारे गाने राजनीतिक हैं. सब में नेहरू के सपनों का भारत है. हर जगह किशोरों और नौजवानों को टार्गेट करके उनके अंदर धर्मनिरपेक्षता, कुरीतियों के प्रति जागरुकता लाई गई है.
ये सब कुछ अनचाहे में ही नहीं हुआ. सायास किया गया. यहां तक कि हमारे पड़ोसी पाकिस्तान ने भी 'जागृति' की नकल 'बेदारी' बनाई. इस फ़िल्म में भी भारत से पाकिस्तान चले गए रतन कुमार ही नायक थे. बेदारी का मतलब भी जागृति ही होता है. फिल्म के गाने भी हूबहू नकल थे. बस अंतर यही था कि 'साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल' की जगह 'कायदे आज़म तेरा अहसान है अहसान' कर दिया गया था और दुश्मनों का ज़िक्र आने पर अंग्रेज़ों की जगह गांधी को दिखाया जाता है. राजनीति यहां भी है, बस इस राजनीति की सीमित सोच और पाकिस्तान का भविष्य देखिए.
किस्सा कुर्सी का बैन होना
सन 62 और 65 के युद्ध के बाद चीज़ें बदलती हैं और नेहरू के सपनों, बिना जाति वाले मिस्टर कुमार की जगह अब एंग्री यंग मैन विजय ले लेता है. इंदिरा गांधी की लगाई इमरजेंसी के समय में 'किस्सा कुर्सी का' के बैन होने और तमाम फिल्म इंडस्ट्री के दिल्ली के हिसाब से चलने के तमाम किस्से हैं. इंदिरा गांधी के समय में ही गुलज़ार 'आंधी' बनाते हैं जो घोर राजनीतिक विषय पर होते हुए भी अराजनीतिक होती है. इसके बाद के सालों में फिल्म इंडस्ट्री पर सरकार से ज़्यादा उद्योगपतियों और अंडरवर्ल्ड का असर रहा. जिसकी वजह से हम कई जगह उसूलों वाले डॉन और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस वालों वालों की कहानियां देखते रहे. इस समय में तमस और राम के नाम जैसा प्रतिरोधी सिनेमा बना जो किसी विचारधारा को खासा पसंद आया, तो किसी को फूटी आंख न सुहाया. वैसे इस बीच एक ज़िक्र करते चलें कि 1977 में जयप्रकाश नारायण की रामलीला मैदान की रैली में भीड़ को रोकने के लिए, तत्कालीन सरकार ने टीवी पर बॉबी फ़िल्म चलवा दी थी कि लोग लाल बिकीनी में डिंपल कपाड़िया को देखने के मोह में रैली में न जाएं. हालांकि, रैली पर फिल्म का कोई खास असर हुआ नहीं था.
2014 के बाद घालमेल
2014 के बाद भारतीय सिनेमा में राजनीति और राजनीति में सिनेमा का जैसा घालमेल हुआ है, वैसा पहले नहीं हुआ. टॉयलेट एक प्रेम कथा, उरी और कमांडो जैसी फ़िल्मों ने स्वच्छ भारत अभियान, सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी का खुलकर प्रचार किया. इसमें कोई बुराई नहीं इसके साथ ही, एक्सिडेंटल प्राइमिनिस्टर जैसी फिल्में भी आईं जो अपने शिल्प के चलते बुरी तरह पिट गईं. वहीं पद्मावत और पीके जैसी फ़िल्मों को लेकर भरपूर राजनीति हुई. इन सबके बीच उत्तर भारत से उलट दक्षिण ने 'असुरन', 'जय भीम' और 'कर्णन' जैसी फ़िल्में बनाईं जिनके विषयों की कल्पना कम से कम हिंदी सिनेमा में तो नहीं की जा सकती.
राजनीति और एंटरटेनमेंट के इस घालमेल को 'कश्मीर फ़ाइल्स' एक अलग स्तर पर ले गई है. यह फिल्म एक बड़े तबके को उत्तेजित करती है. इससे पहले ऐसा हम 'रंग दे बसंती' के समय में देख चुके हैं जब फिल्म के बाद लोग जेसिका लाल के लिए मोमबत्ती लेकर इंडिया गेट पर जमा हुए थे और नौजवानों के एक बड़े तबके को लगा था कि 'कुछ करना चाहिए'. इस बार हम सिनेमाहॉल में नारे लगते हुए, सोशल मीडिया पर बहस होते हुए, और लोगों को जमा होकर एक पर्व के तौर पर फिल्म देखते हुए देख रहे हैं
क्या फिल्म के नाम पर उन्माद सामान्य है
क्या फिल्म के नाम पर जिस उन्माद के लक्षण दिख रहे हैं वह सामान्य या सही चीज़ है? इसका जवाब पाने के लिए 'शिंडलर्स लिस्ट' की बात करते हैं. स्टीवन स्पीलबर्ग ने यहूदियों के नरसंहार पर यह फिल्म बनाई. इसमें कोई नरम दिल जर्मन नहीं दिखाया गया है, भरपूर हिंसा दिखाई गई है, लेकिन फिर भी अंत में फिल्म आपको उन मारे गए यहूदियों के प्रति करुणा से भर देती है. आप उन यहूदियों की पीड़ा को आत्मसात कर लेते हैं और भूल नहीं पाते. फिर भी आपके दिल में जर्मनी या किसी ईसाई के प्रति नफरत नहीं पैदा होती. कश्मीर पर बनी उक्त फिल्म अच्छी हो या बुरी, लोगों में कश्मीरी पंडितों के प्रति इस करुणा से ज़्यादा एक समुदाय के प्रति गलत आक्रोश भर रही है. यहां तक कि मैंने अपने कई जानने वालों को 'छिपा सच बाहर लाने' जैसी बातें करते सुना. कश्मीर में आतंकवाद और उसका दर्द अगर किसी भारतीय से अब तक छिपा हुआ था, शायद हम किसी दूसरी ही दुनिया में जी रहे हैं.
अब कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि स्टीवन स्पीलबर्ग एक बेहद कुशल डायरेक्टर हैं, और बिना किसी के प्रति नफ़रत पैदा किए पीड़ित के प्रति करुणा पैदा करना सबके बस की बात नहीं. यह बात भी सच है, लेकिन एक और पहलू है. इससे पहले बनीं 'गदर' और 'उरी' जैसी घोर मसाला फ़िल्में भी जोश तो भरती हैं, लेकिन 'दुश्मनी' के नाम पर ऐसी नफ़रत नहीं पैदा कर पाती हैं, तो क्या कारण कुछ और है. सोशल मीडिया पर प्रसारित अपने कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार कमेलश सिंह कहते हैं कि फिल्म एक बहाना है. जो लोग नफ़रत दिखा रहे हैं शायद वो उनके अंदर पहले से भरी हो, बस उसे बाहर आने का बहाना चाहिए था.
मेजॉरटी के पागलपन का कर्ज़ उनकी पुश्तों ने चुकाया है
अगर ऐसा है, तो स्थिति ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि 1990 के दशक में कश्मीर में बहुसंख्यक आबादी के लोगों में उन्माद फैला. उन्होंने अपने आपको एक देश औऱ पहचान से जोड़ लिया. इसके बाद बड़ी संख्या में लोग वहां के अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ़ हुए और उनपर तमाम ज़ुल्म किए. पीड़ितों के साथ जो हुआ वो तो एक त्रासद इतिहास है ही, उस बहुसंख्यक समाज की आने वाली नस्लें ऐसी वहशत में फँस गईं कि उबर ही नहीं पा रही हैं. इसका ठीक उल्टा घटनाक्रम 30 साल बाद दिख रहा है. जहां एक और बहुसंख्यक समुदाय उन्माद की ओर बढ़ता दिख रहा है और निशाने पर एक और अल्पसंख्यक समुदाय है. आपको क्या लगता है अगर यहां भी आग लगी, तो आपकी आने वाली नस्ल इससे बच जाएगी. नही, इतिहास उठाकर देख लीजिए जब कभी ऐसा हुआ है, तो मेजॉरटी के पागलपन का कर्ज़ उनकी पुश्तों ने चुकाया है और इतिहास की आदत है खुद को दोहराते रहने की. करुणा का रास्ता चुनिए, नफ़रत का नहीं. और हां, खेमेबंदी के इस दौर में तटस्थता का विकल्प भी बाद में अपराध के तौर पर गिना जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat
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