सम्पादकीय

तालिबानी 'दहशत' की सरकार

Subhi
9 Sep 2021 12:45 AM GMT
तालिबानी दहशत की सरकार
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अफगानिस्तान में तालिबान की जो नई सरकार बनी है उसमें विश्व के घोषित आतंकवादियों के शामिल होने से साबित हो गया है कि यह देश अब दहशतगर्दी के साये में जीने को मजबूर होगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा: अफगानिस्तान में तालिबान की जो नई सरकार बनी है उसमें विश्व के घोषित आतंकवादियों के शामिल होने से साबित हो गया है कि यह देश अब दहशतगर्दी के साये में जीने को मजबूर होगा। क्या गजब की सितमगर सरकार बनी है जिसका मुखिया वह मुल्ला मोहम्मद हसन आखुंड होगा जिसने 2001 में बोधि बुद्ध की विशालकाय मूर्ति को तोड़ने का आदेश मुल्ला उमर के तालिबानी शासनकाल के दौरान दिया था। उस समय तालिबानों ने यह काम जाते-जाते किया था। दूसरा सितम यह है कि इसका गृहमन्त्री वह सिराजुद्दीन हक्कानी होगा जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इनामी आतंकवादी रहा है। यदि तालिबानों से इस प्रकार का समझौता अमेरिका विगत वर्ष दोहा (कतर) में किया था तो इस मुल्क का खुदा ही मालिक है। तालिबानियों की यह अंतरिम सरकार है जिसमें उन तालिबानों ने बाजी मारी है जिन्हें कन्धार के खूंखार तालिबानी गुट का सदस्य कहा जाता है जबकि दोहा (कतर) स्थित तालिबानियों को अपेक्षाकृत उदार समझा जाता है। इस गुट के मुखिया मुल्ला बरादर को उप प्रधानमन्त्री बना कर यह सन्देश देने की कोशिश की गई है कि अफगानिस्तान का निजाम अंतरिम तालिबानी सरकार इस्लामी कानून 'शरीया' के अनुसार ही चलायेगी और औरतों को मानवीय अधिकारों के हक से महरूम रखेगी। तालिबान ने कुल 33 मन्त्रियों की घोषणा की है जिनमें से 30 पश्तून हैं और एक भी महिला मन्त्री नहीं है। इन 33 में से भी 20 कन्धार गुट के तालिबानी हैं। इसका सीधा मतलब है कि यह अफगानिस्तान की विविधता को देखते हुए बनाई गई सरकार नहीं बल्कि पाकिस्तान के आईएसआई के प्रमुख जनरल फैज हमीद की निगरानी में बनाई गई सरकार है जिसमें खूंखार हक्कानी आतंकवादियों के हाथ में मुल्क की कानून व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी दे दी गई है। अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जिस देश का गृहमन्त्री स्वयं आदमखोर भेड़िये की छवि रखता है उसका हश्र क्या हो सकता है। अब इसमें कोई दो राय नहीं है कि मौजूदा सरकार पाकिस्तान के इशारे पर गठित की गई है और इस प्रकार गठित की गई है जिससे अफगानिस्तान में पाकिस्तान की मर्जी पर उसके बैठाये गये मोहरों की मार्फत फैसले होते रहें और पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से आतंकवाद खत्म करने के नाम पर मोटी रकम एेंठता रहे। इस सरकार के बनने से आम अफगानी नागरिकों की परेशानियां इस तरह बढ़ सकती हैं कि कदम-कदम पर उन्हें जिल्लत उठाने और रुसवा होने को मजबूर होना पड़े। क्योंकि हुकूमत बनने से पहले ही जिस तरह तालिबानियों ने अपने राष्ट्रभक्त नागरिकों पर काबुल में पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन करने पर जुल्म ढहाया और औरतों तक को बेइज्जत किया व उन्हें दौड़ा कर दंडित करने की धमकी दी तथा इस प्रदर्शन की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को बन्दी बनाया उससे हुकूमत बनाने का एेलान करने के बाद का मंज्जर साफ-साफ नजर आ रहा है। सवाल यह है कि अफगानिस्तान के शिया व हजारा मुस्लिमों के अलावा अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज की नुमाइन्दगी एेसी बहशी सरकार में किस तरह हो सकती है जिसका सरपरस्त तास्सुबी जेहादी जहनियत से भरा बैठा हो। इसलिए अमेरिका समेत पश्चिमी देशों के रहनुमाओं को यह सोचना होगा कि 20 साल तक इस मुल्क में रहने के बाद जो मुहाइदा वे तालिबानों के साथ करके गये हैं उसका नतीजा आतंकवादियों की सरकार की शक्ल में निकला है। इसलिए यह कहना फिजूल है कि पुराने तालिबान और नये तालिबानों की जहनियत में कोई फर्क है। वक्त बदलने के बावजूद इनका तास्सुबी दिमाग नहीं बदला है। यह सब पाकिस्तान की शह पर हो रहा है जो इन तालिबानों को ढाल बना कर उन्हीं से उनके भाइयों को उसी तरह मरवाना चाहता है जिस तरह 1970 में पाकिस्तान के हुक्मरानों ने जनरल टिक्का खां को ढाका (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) भेज कर लाखों बांग्लादेशी मुस्लिमों का कत्ल करवाया था। अफगानी कौम भी अपने स्वाभिमान को पाकिस्तान के पाले हुए गुर्गों के सामने गिरवीं नहीं रख सकती और यही वजह है कि पंजशीर के ढहने के बावजूद आम अफगानी का गुस्सा पाकिस्तान के खिलाफ इस मुल्क की सड़कों पर उबल रहा है।संपादकीय :प्रेरणादाई बलिदानकल आज और कलमुहाने पर अफगानिस्तान !ऑनलाइन शिक्षा का अफसानाबघेल : पिता के लिए भी कानूनग्लैमर में छिपे स्याह चेहरे अफगानियों के लिए भारत शुरू से ही 'दूसरा घर' रहा है। इसके लिए यह उदाहरण काफी है कि भारत की आजादी के आन्दोलन के सिपाही सीमान्त या सरहदी गांधी के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान ने 1947 में बंटवारे के समय अविभाजित भारत के पश्चिमी सीमा प्रान्त के पाकिस्तान में जाने के समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से हताश होकर कहा था कि 'बापू आपने हमें किन भेड़ियों के हवाले कर दिया है?' यह पुख्ता इतिहास है जिसे कोई नहीं बदल सकता। भारत के हर शहर की नई पीढ़ी को आज भी गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की 'काबुली वाला' कहानी पढ़ाई जाती है जिसमें अफगानिस्तान व भारत के रिश्तों की सुगन्ध से हर हिन्दोस्तानी झूम जाता है। अतः अफगानिस्तान में आतंकवादियों की सरकार आने के बाद भारत की कूटनीतिक भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। क्या कभी कोई सोच सकता है कि किसी देश को वे आतंकवादी चला सकते हैं जिनका धर्म सिर्फ हिंसा और दहशत फैलाना रहा है। ये बात चाहे किसी भी मजहब की करते हों मगर इनका असली मजहब दहशतगर्दी ही रहा है इसी वजह से पाकिस्तान जैसा नामुराद मुल्क इनकी तरफदारी इस कदर कर रहा है कि अपनी खुफिया एजेंसी के सरपराह फैज हमीद की निगरानी में इनकी सरकार बनवा रहा है। हद तो यह हो गई है कि फैज हमीद उस मुल्क में बिना किसी जायज दस्तावेज के जाता है जो दूसरे मुल्क में जाने के लिए किसी भी गैरमुल्की शहरी के लिए जरूरी होते हैं। इसका मतलब यही निकलता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपनी एक 'कालोनी' में तब्दील कर देना चाहता है। सबूत यह है कि पाकिस्तानी फौज व वायुसेना ने पंजशीर में तालिबानों की मदद में सीधा आक्रमण क्यों कर दिया? ''कभी नेकी भी उसके जी में गर आ जाये है मुझसे जफाएं करके याद अपनी शरमा जाये है मुझसे।''


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