सम्पादकीय

आतंक पर प्रहार

Subhi
24 Sep 2022 4:57 AM GMT
आतंक पर प्रहार
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इस छापेमारी में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। हैरानी की बात है कि यह संगठन करीब सोलह सालों से सक्रिय है और अब तक इस पर शिकंजा कसने की जरूरत क्यों नहीं समझी गई।

Written by जनसत्ता; इस छापेमारी में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। हैरानी की बात है कि यह संगठन करीब सोलह सालों से सक्रिय है और अब तक इस पर शिकंजा कसने की जरूरत क्यों नहीं समझी गई। हालांकि एनआइए इस पर लगातार नजर बनाए हुई थी और पांच साल पहले ही गृह मंत्रालय को अपनी एक जांच रिपोर्ट में इस संगठन पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था।

मगर इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया और इस संगठन की शाखाएं पूरे देश में फैलती गईं। इसका विस्तार सबसे अधिक केरल में बताया जाता है। अभी एनआइए ने पंद्रह राज्यों में छापे मारे और इसके एक सौ छह नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया।

माना जा रहा है कि इससे इस संगठन पर कड़ा प्रहार हुआ है। मगर विचित्र है कि इस छापे के विरोध में आंदोलन शुरू हो गया है और बहुत से लोग इसे राजनीति से प्रेरित कार्रवाई रार दे रहे हैं।

पीएफआइ की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप कई मौकों पर लगते रहे हैं। बताया जाता है कि करीब सोलह साल पहले स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया यानी सिमी पर प्रतिबंध लगने के बाद यह संगठन नाम बदल कर खड़ा किया गया था और यह इस्लाम के प्रचार के नाम पर कट्टरपंथी विचारों का प्रसार करता रहा है।

पीएफआइ पर नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन उकसाने का आरोप लगा था। फिर किसान आंदोलन के समय भी चरमपंथी गतिविधियों को बढ़ावा देने की कोशिश का आरोप इस पर लगा। इसके बाद कर्नाटक में हिजाब संबंधी विवाद को हवा देने के पीछे मुख्य रूप से इसी संगठन का हाथ माना जाता रहा है।

नुपूर शर्मा के बयान के बाद विभिन्न शहरों में हिंसक आंदोलन भड़काने की जिम्मेदारी भी इसी की मानी जाती है। ताजा छापों में कुछ ऐसे लोगों को भी गिरफ्तार बताया जा रहा है, जो युवाओं को प्रशिक्षित कर आतंकी गतिविधियों के लिए तैयार कर रहे थे। आतंकवाद से लड़ रहे एक देश के लिए ऐसी गतिविधियां निस्संदेह चिंता का सबब हैं।

देर से ही सही, इस हकीकत से पर्दा उठना चाहिए कि क्या वास्तव में यह संगठन चरमपंथी गतिविधियों में शामिल रहा है या नहीं। एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों को अपने हकों की लड़ाई के लिए संगठन बनाने और आवाज उठाने का अधिकार है, मगर इससे यह हक किसी को नहीं मिल जाता कि वे चरमपंथी रास्ते से अपनी बात मनवाने का प्रयास करें।

संवाद ही लोकतंत्र का मूल मंत्र है, अतिवाद को किसी भी रूप में उचित करार नहीं दिया जा सकता। इसलिए जो लोग इस छापेमारी के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल और अदालत के फैसले पर भरोसा करना चाहिए।

ये छापे औंचक नहीं पड़े, कई राज्यों से पीएफआइ पर प्रतिबंध लगाने की मांग पहले से उठती रही है। अब अगर जांच एजंसियों को इस संगठन की गतिविधियां संदिग्ध नजर आई हैं और उसके ठिकाने से ऐसे तथ्य मिले हैं, जो देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक माने जाते हैं, तो उन्हें क्यों बख्शा जाना चाहिए। ऐसे संगठनों का समर्थन किसी भी रूप में नहीं किया जाना चाहिए।


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