सम्पादकीय

क्या अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान को समानता के अधिकारों को कुचलने की इजाजत होनी चाहिए?

Gulabi
17 Oct 2020 2:03 AM GMT
क्या अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान को समानता के अधिकारों को कुचलने की इजाजत होनी चाहिए?
x
दिल्ली विश्वविद्यालय का सेंट स्टीफन कॉलेज हर वर्ष अपनी विवादित कार्यशैली के कारण चर्चा में आता है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। दिल्ली विश्वविद्यालय का सेंट स्टीफन कॉलेज हर वर्ष अपनी विवादित कार्यशैली के कारण चर्चा में आता है। इस बार भी वह चर्चा में है। इस कॉलेज ने इस वर्ष बीए इतिहास के पाठ्यक्रम में दाखिले की जो पहली सूची निकाली, उसमें सीबीएसई के ऑल इंडिया टॉपर तुषार सिंह का नाम नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय का यह अकेला कॉलेज है, जो सीबीएसई बोर्ड और विश्वविद्यालय, दोनों को अंगूठा दिखाते हुए दाखिले में साक्षात्कार करता है। तुषार सिंह का भी साक्षात्कार ऑनलाइन हुआ, लेकिन नतीजा शून्य निकला। कॉलेज के इस निर्णय से एक लोकतांत्रिक देश की संस्थाओं पर कई प्रश्न उठ रहे हैं।

सेंट स्टीफन कॉलेज में साक्षात्कार से दाखिला, नंबरों के आधार पर नहीं

जब दिल्ली विश्वविद्यालय के लगभग 80 कॉलेज विभिन्न पाठ्यक्रमों में 70,000 सीटों के लिए सीबीएसई सहित देश के शेष बोर्डों का सम्मान करते हुए उनके नंबरों के आधार पर दाखिला देते हैं तो किसी एक कॉलेज को साक्षात्कार की ऐसी छूट क्यों? क्या महज इसलिए कि वह अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान है? कोरोना की वजह से साक्षात्कार ऑनलाइन हुआ, जिसकी विश्वसनीयता की सीमाएं भी स्पष्ट हैं। अच्छा होता कि इस वर्ष साक्षात्कार के बिना ही दाखिले किए जाते और इसी वर्ष क्यों?

सिर्फ पांच मिनट के साक्षात्कार में अखिल भारतीय स्तर के एक मेधावी छात्र की प्रतिभा खारिज

क्या सिर्फ पांच मिनट के साक्षात्कार से आप अखिल भारतीय स्तर के एक मेधावी नौजवान की प्रतिभा को पूरी तरह खारिज कर सकते हैं? आखिर साक्षात्कार में कौन ऐसे विद्वान हैं, जो प्रतिभाओं को पहचानने की ऐसी क्षमता रखते हैं?

दाखिले में धर्म के नुमाइंदों को शामिल करना गलत परंपरा की शुरुआत

पिछले वर्ष भी सेंट स्टीफन कॉलेज में दाखिले के लिए बनाई साक्षात्कार की टीम में चर्च के एक सदस्य को शामिल किया गया था, जिसका विरोध कॉलेज के शिक्षकों, विद्यार्थी संगठनों और शिक्षक संगठनों ने इस आधार पर किया था कि दाखिला जैसे पारदर्शी काम में धर्म के नुमाइंदों को शामिल करना एक गलत परंपरा की शुरुआत होगी। क्या दिल्ली विश्वविद्यालय का प्रशासन और वाइस चांसलर बराबरी के नियमों की इस तरह अनदेखी कर सकते हैं? क्या यह देश की नौजवान पीढ़ी के लिए एक गलत संदेश नहीं देता कि कल तक जिस बच्चे पर फूल वर्षा हो रही थी, उसे दाखिले के वक्त पांच मिनट के साक्षात्कार में खारिज कर दिया गया?

दलितों को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों में आरक्षण नहीं दिया जा रहा

माना सेंट स्टीफन एक अल्पसंख्यक संस्थान है, लेकिन क्या अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर समानता के मूल अधिकारों को कुचलने की इजाजत होनी चाहिए? अल्पसंख्यक के नाम पर देश के कई विश्वविद्यालय एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग को मिलने वाले आरक्षण को भी दशकों से दरकिनार कर रहे हैं, लेकिन पता नहीं क्यों उस पर चर्चा क्यों नहीं हो रही है? यह चर्चा इसके बाद भी नहीं हो रही है कि दलितों के प्रति हमदर्दी जताने में कोई पीछे नहीं दिखता। आखिर ऐसे लोग यह सवाल कब उठाएंगे कि दलितों को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों में आरक्षण क्यों नहीं दिया जा रहा है?

दिल्ली विश्वविद्यालय में थोपी जा रही अंग्रेजी

जहां देश के कई विश्वविद्यालय के छात्रों ने आगे बढ़कर अपने-अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय कामों के बूते नोबेल जैसे दुनिया के सम्मानित पुरस्कार पाए हैं, वहीं स्टीफन कॉलेज का नाम कुछ नफासत से अंग्रेजी सिखाने के लिए ही लिया जाता है। किसी भी कॉलेज-विश्वविद्यालय की पहचान उसके उल्लेखनीय शोध से होती है, न की धर्म, भाषा के नाम पर भेदभाव भरी नीतियों के कारण। यह भी ध्यान रहे कि सेंट स्टीफन जैसे कुछ कॉलेजों में तो हिंदी और संस्कृत के शिक्षकों की भर्ती का साक्षात्कार भी शुद्ध अंग्रेजी में लेने की परंपरा हो गई है। आखिर संसदीय भाषा समिति को इधर देखने की फुरसत कब मिलेगी? इन्हीं नीतियों की वजह से जहां कुछ दशक पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग एक चौथाई विद्यार्थी हिंदी माध्यम में पढ़ते थे, लेकिन आज उनके ऊपर अंग्रेजी जबरन लादी जा रही है।

शिक्षा संस्थानों को पटरी पर लाने की जरूरत

हाल में घोषित नई शिक्षा नीति के कर्णधारों को सबसे पहले ऐसे शिक्षा संस्थानों को पटरी पर लाने की जरूरत है, जो मनमानी कर रहे हैं। नई शिक्षा नीति में सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए साझा प्रवेश परीक्षा की योजना तो है, लेकिन अफसोस शिक्षकों की भर्ती के लिए किसी लिखित परीक्षा का जिक्र नहीं है, जबकि टीएसआर सुब्रमण्यम समिति ने 2016 में ही अपनी सिफारिशों में विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग जैसे बोर्ड की सिफारिश की थी।

दिल्ली विवि में दाखिले के लिए साक्षात्कार जैसी मनमानी प्रक्रिया को बंद किया जाए

तुषार सिंह के प्रसंग ने यह फिर साबित कर दिया कि साक्षात्कार जैसी मनमानी प्रक्रिया को तुरंत बंद किया जाए। ध्यान रहे कि तुषार ने पूरे देश में अव्वल स्थान प्राप्त किया है और दलित वर्ग से भी आता है। मौजूदा केंद्र सरकार ने प्रथम श्रेणी के पदों को छोड़कर लाखों पदों पर साक्षात्कार को पूरे देश में समाप्त कर दिया है। यूपीएससी की उच्च परीक्षाओं में भी साक्षात्कार के अंक केवल 15 प्रतिशत होते हैं यानी पूरी तरह निष्पक्ष पैमाना लिखित परीक्षा ही है।

दिल्ली विवि में केवल अंकों के आधार पर दाखिले की पारदर्शी प्रक्रिया इसी सत्र से लागू हो

अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों की मनमानी के चलते ही विदेशी विश्वविद्यालय हमारी प्रतिभाओं को खींच कर ले जा रहे हैं। यदि छात्र छोटे कस्बों, भारतीय भाषाओं, आदिवासी, दलित, महिला या अन्य पिछड़े क्षेत्र के हैं तो उनको और अंक देकर आगे बढ़ाने की जरूरत है, न कि उनको इन्हीं आधारों पर रोकने की। सेंट स्टीफन सरीखे शिक्षा संस्थानों के अनुभव बताते हैं कि उनके लिए धार्मिक आधार के साथ-साथ प्राथमिकता महानगर या अंग्रेजी माध्यम के स्कूल होते हैं। चूंकि अल्पसंख्यक संस्था होने के बावजूद कॉलेज को केंद्र और विश्वविद्यालय से अनुदान मिलता है, इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय का कर्तव्य है कि साक्षात्कार जैसी मनमानी को तुरंत रोके और दूसरे कॉलेजों की तरह ही केवल अंकों के आधार पर दाखिले की पारदर्शी प्रक्रिया इसी सत्र से लागू हो। जिन संस्थानों को सरकार से कोई भी अनुदान मिलता है, उन्हेंं अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक जैसी पहचान के आधार पर मनमानी करने की इजाजत कतई न दी जाए।

Next Story