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- आतंक का सिलसिला
Written by जनसत्ता: करीब साल भर पहले जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर अपना शासन शुरू किया था, तभी यह आशंका जताई गई थी कि इस देश में आतंक का एक और सिलसिला खड़ा होने वाला है। शुक्रवार को काबुल के एक शिक्षा केंद्र में हुआ विस्फोट ऐसी आतंकी घटनाओं की महज एक कड़ी भर है, जो अब तकलीफदेह रूप से वहां एक दिनचर्या की तरह देखने में आ रही है। हाल ही में वजीर अकबर खान इलाके और रूसी दूतावास के बाहर हुए विस्फोट में कई लोगों की जान चली गई थी।
इस रास्ते दहशत फैलाने और हत्या करने वालों का मकसद क्या है, कोई नहीं जानता। ऐसे हमलों को अंजाम देने वालों को भी शायद नहीं पता कि आम लोगों का संहार करके वे क्या हासिल करना चाहते हैं? गौरतलब है कि काबुल में दश्ते-बारची इलाके के काज शिक्षा केंद्र में एक आत्मघाती शख्स ने जाकर खुद को विस्फोट से उड़ा लिया, जिसमें कम से कम तीस बच्चों की जान चली गई। इस घटना में खास पहलू यह है कि मारे गए बच्चे हजारा या शिया समुदाय के थे। मरने वालों में ज्यादातर लड़कियां थीं। यह समझना मुश्किल है कि आम लोग से लेकर मासूम बच्चों की हत्या करके आतंकवादियों को क्या हासिल होता है!
ऐसी घटनाओं के बाद संबंधित इलाके में सक्रिय आपराधिक या आतंकवादी गिरोह तुरंत इसकी जिम्मेदारी लेकर अपने खौफ के दायरे का विस्तार करना चाहते हैं, मगर दश्ते-बारची इलाके में विस्फोट की जिम्मेदारी फिलहाल किसी ने नहीं ली है। यों अफगानिस्तान में अब तालिबान के बरक्स इस्लामिक स्टेट बतौर प्रतिद्वंद्वी काम कर रहा है। वह पहले भी हमलों में मस्जिदों में इबादत करने वालों तक को निशाना बना चुका है।
ज्यादातर आतंकी हमलों में अफगानिस्तान के शिया समुदाय के लोग निशाने पर रहे। यों आतंकवाद में यकीन रखने वालों से तर्क पर आधारित या मानवीय तकाजों वाले सवाल पूछना बेमानी है, फिर भी यह अपने आप में विचित्र है कि महजब को मजबूत करने और उसे बचाने के दावों के बीच वे उसी धर्म को मानने वाले अन्य समूहों के खिलाफ आतंकी हिंसा को अंजाम देते हैं। ऐसे आतंकवादी हमलों में न जाने कितने आम लोगों की जान जा चुकी है, जिनकी रक्षा करने का दावा तालिबान या आइएस जैसे दूसरे तमाम आतंकवादी संगठन करते रहे हैं।
तालिबान जिस तरह दायरे में बंधा समाज बनाना चाहता है, उसमें रोज खड़ी होने वाली तमाम बाधाओं के बावजूद पढ़ाई का सपना पाले हुए कुछ बच्चे दश्ते-बारची के उस शिक्षा केंद्र तक पहुंचे होंगे। वे सभी बच्चे भी शायद महजब में भरोसा रखने वाले ही होंगे। ऐसा लगता है कि आतंकी समूहों को इसी से डर लगता है कि अगर बच्चे शिक्षित होने लगेंगे तो उनकी जमीन खिसक जाएगी। इसलिए अक्सर वे स्कूल-कालेज या किसी शैक्षणिक संस्थान में अचानक गोलीबारी और यहां तक कि आत्मघाती विस्फोट करके अपनी आतंकी धारा का खौफ कायम रखना चाहते हैं।
अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आने के बाद शिक्षा से लेकर सामाजिक जिंदगी तक में महिलाओं की स्थिति क्या हो चुकी है, यह छिपा नहीं है। इस तरह के आतंक की बुनियाद पर खड़े किसी राज या समाज की जिंदगी कितनी होती है? अगर कुछ समय के लिए ऐसा राज कायम कर भी लिया जाता है तो वह सिर्फ डर पर कायम रहेगा। क्या किसी भी धर्म या मत का मूल्य इस तरह की आतंकी व्यवस्था की इजाजत देता है? क्या आतंक और हिंसा को अपना मुख्य जरिया बनाने वाले समूह सचमुच अपने धर्म को बचाने की लड़ाई लड़ते हैं या फिर वे उसे सिर्फ बदनाम करने की कोशिश करते हैं?