सम्पादकीय

आतंक की जड़ें

Subhi
12 July 2022 5:07 AM GMT
आतंक की जड़ें
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जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त हुए तीन साल होने जा रहे हैं। इसमें एक साल से अधिक समय तक वहां कर्फ्यू लगा रहा, संचार माध्यमों पर रोक थी। वहां सेना और सुरक्षाबलों का चौकस पहरा है।

Written by जनसत्ता: जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त हुए तीन साल होने जा रहे हैं। इसमें एक साल से अधिक समय तक वहां कर्फ्यू लगा रहा, संचार माध्यमों पर रोक थी। वहां सेना और सुरक्षाबलों का चौकस पहरा है। इसके पहले घाटी में आतंकवाद खत्म करने के लिए कई सख्त कदम उठाए जा चुके हैं। कई बार दावा किया गया कि घाटी में आतंकवाद अब समाप्ति की ओर है। मगर खुद गृह मंत्रालय का ताजा आंकड़ा है कि जैश-ए-मोहम्मद, हिज्बुल मुजाहिदीन आदि संगठनों ने पिछले चार सालों में जम्मू-कश्मीर में सात सौ युवाओं को भर्ती किया।

इसके वर्षवार आंकड़े भी दिए गए हैं, जिसमें अनुच्छेद तीन सौ सत्तर हटने के बाद के वर्षों में भी औसतन डेढ़ सौ युवाओं की हर साल भर्ती हुई। ये आंकड़े चौंकाने वाले और चिंताजनक हैं। हालांकि इस दौरान मुठभेड़ में सैकड़ों आतंकी मारे भी गए, पर घाटी में नए आतंकवादियों की भर्ती का न रुकना सरकार की आतंकवाद के खिलाफ चल रही लड़ाई पर सवाल खड़े करते हैं। यह ठीक है कि जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा हटने से वहां के लोगों में रोष है और यह वहां के युवाओं के हाथ में हथियार उठाने की एक वजह हो सकती है, मगर इतने सारे कठोर उपाय आजमाने के बावजूद अगर इस पर रोक नहीं लग सकी, तो चिंता स्वाभाविक है।

केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकार बनी, तो घाटी में आतंकवाद समाप्त करना उसकी प्राथमिकता में था। सघन तलाशी अभियान चलाए गए, अलगाववादी संगठनों के बैंक खाते बंद कर दिए गए, हुर्रियत के नेताओं को सलाखों के पीछे डाला गया, घाटी में आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों पर शिकंजे कसे गए। इस तरह दावा किया गया कि आतंकियों की कमर टूट जाएगी।

फिर जब नोटबंदी हुई तो दावा किया गया कि आतंकियों को मिलने वाली वित्तीय मदद रुक जाएगी, जिससे उनके लिए साजो-सामान खरीदना मुश्किल होगा। सीमा पार से होने वाली घुसपैठ को रोकने के लिए मुस्तैदी बढ़ा दी गई। उधर चल रहे आतंकी श्वििरों पर नजर रखी जाने लगी। इस तरह कई घुसपैठों को नाकाम करने में भी मदद मिली। फिर भी अगर सीमा पार से घुसपैठ हो रही है और वहां प्रशिक्षण पाए दहशतगर्द घाटी में घुस कर नई भर्तियां करने में सफल हो पा रहे हैं, तो यह हैरानी की बात है। सवाल यह भी है कि अगर ताजा आंकड़े सही हैं तो फिर इससे पहले सरकार किस आधार पर दावा करती रही कि घाटी में आतंकवादियों की मौजूदगी काफी कम हो गई है।

यह तथ्य छिपा नहीं है कि दहशतगर्द घाटी में युवाओं को इसलिए गुमराह करने में कामयाब हो जाते हैं कि वहां रोजगार की खासी कमी है। फिर सेना के दमनकारी व्यवहार के जख्म भी वहां के बहुत सारे परिवारों में जिंदा हैं। कश्मीर को भारत का अंग न मानने का दृढ़ विश्वास वहां के लोगों में भरा हुआ है। इसलिए तमाम विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते रहे कि पहले कश्मीरी लोगों में भारत के प्रति लगाव पैदा करना जरूरी है, नहीं तो अलगाववाद की आग कभी नहीं बुझेगी।

इसी सिलसिले में वहां लोगों से लगातार संवाद कायम रखने का सिलसिला चला था। मगर वर्तमान केंद्र सरकार ने बातचीत का रास्ता छोड़ कर बंदूक के बल पर कश्मीरी मन को बदलने का प्रयास किया। कश्मीरी युवाओं में आतंकवाद के रास्ते पर चलने की बढ़ती प्रवृत्ति पर काबू पाने के लिए नए सिरे से विचार करने और रणनीति बनाने की जरूरत है।



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