सम्पादकीय

आतंक की जड़ें

Subhi
21 Feb 2022 3:30 AM GMT
आतंक की जड़ें
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जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दी को नेस्तनाबूद करने की कोशिशें उम्मीद के मुताबिक सिरे नहीं चढ़ पा रहीं। जब-तब आतंकी सिर उठाते देखे जाते हैं।

Written by जनसत्ता: जम्मू-कश्मीर में दहशतगर्दी को नेस्तनाबूद करने की कोशिशें उम्मीद के मुताबिक सिरे नहीं चढ़ पा रहीं। जब-तब आतंकी सिर उठाते देखे जाते हैं। हालांकि पिछले चार-पांच सालों में सघन तलाशी अभियान और सीमा पार से होने वाली घुसपैठ पर पैनी नजर रखी जाने की वजह से दहशतगर्दों के मंसूबों पर पानी फेरने में काफी कामयाबी मिली है। मगर आतंकी आए दिन घात लगा कर कोई बड़ी घटना अंजाम दे जाते हैं। करीब दो महीने पहले ही पुलिस की बस पर हमला कर उन्होंने सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दे डाली। इसके अलावा छिटपुट हमले करते ही रहते हैं।

ताजा घटना शोपियां की है, जिसमें तलाशी अभियान के दौरान सुरक्षा बल के दो सैनिक शहीद हो गए। हालांकि उसमें एक आतंकवादी को भी मार गिराया गया और सारे इलाके में गहन तलाशी अभियान जारी है। मगर इससे फिर रेखांकित हुआ है कि घाटी में आतंकवाद की न सिर्फ जड़ें मौजूद हैं, बल्कि वे पनपनी शुरू हो गई हैं। जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किए जाने के बाद वहां लंबे समय तक कर्फ्यू लगा रहा, संचार सुविधाएं स्थगित रहीं, सेना की चौकसी बढ़ी हुई थी। तब आतंकी घटनाओं पर भी लगाम लगी हुई थी। मगर जैसे ही वहां की स्थितियां सामान्य करने के लिए ढिलाई शुरू हुई, वैसे ही फिर से दहशतगर्दी ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए।

यों सरकार दावे करती रही है कि घाटी में आतंकवादी घटनाएं काफी कम हो गई हैं, पहले से सुरक्षा चौकसी बढ़ी है और सीमा पार से घुसपैठ पर लगाम लगी है, आतंकियों को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों के खिलाफ शिकंजा कसा है। मगर इन सबके बावजूद अगर रह-रह कर आतंकी घटनाएं घट जा रही हैं, तो यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर कैसे उन्हें मदद मिल रही है। उनके पास हथियार और दूसरे संसाधन कैसे पहुंच पा रहे हैं।

उन्हें कौन वित्तीय मदद पहुंचा रहा है। ऐसा भी नहीं माना जा सकता कि वे जबरन किसी घर में घुस कर छिपे रहते होंगे, क्योंकि जब तक स्थानीय लोगों का उन्हें समर्थन प्राप्त नहीं होगा, तब तक उन्हें अपनी साजिशों को अंजाम देने में कामयाबी नहीं मिल सकती। कई मौकों पर देखा गया है कि सुरक्षा बल तलाशी के लिए पहुंचते हैं, तो गांव वाले उनके खिलाफ घेरेबंदी कर लेते या पत्थरबाजी वगैरह शुरू कर देते हैं। यह छिपी बात नहीं है कि घाटी में दहशतगर्दी को खुराक पाकिस्तान पहुंचाता है, मगर स्थानीय लोग जब तक उसका साथ नहीं देंगे, वह कामयाब कतई नहीं हो सकता।

इसलिए अनेक मौकों पर सलाह दी जाती रही है कि सिर्फ बंदूक के बल पर आतंकवाद से नहीं निपटा जा सकता। इसमें स्थानीय लोगों का सहयोग जरूरी है। स्थानीय लोगों में भरोसा पैदा होगा कि उनका मुस्तकबिल इसी मुल्क में महफूज है, तो वे खुद इसके विरोध में उतरेंगे। आखिरकार आतंकवाद की दोहरी मार घाटी के लोगों को ही झेलनी पड़ती है। कभी सेना उन पर ज्यादती करती है, तो कभी दहशतगर्द।

कश्मीरी नौजवानों की बेकारी भी इसमें एक बड़ा मुद्दा रहा है, क्योंकि रोजगार न होने की वजह से उन्हें आतंकवादी संगठन और अलगाववादी ताकतें बरगला कर हाथों में हथियार उठाने को उकसा पाती हैं। अभी कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली के प्रयास चल रहे हैं, मगर उसका सही अर्थों में तब तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक स्थानीय लोगों का मन न जीता जाए। घाटी में आतंकवाद को लेकर नए सिरे से रणनीति बनाने की जरूरत है।


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