सम्पादकीय

बिछ रही लहलही घास

Subhi
21 Jun 2022 5:10 AM GMT
बिछ रही लहलही घास
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शैशव में पढ़ी, मन में बहुत गहरे छिपी बैठी कुछ कविताएं मौका पाते ही जेहन में उभर आती हैं, मानो बरसात की बूंदें पाकर अनायास उग आई घास हो या गरीबी में कुछ पैसों का जुगाड़ होते ही मन को घेर लेने वाली ढेर सारी अतृप्त इच्छाएं।

अरुणेंद्र नाथ वर्मा; शैशव में पढ़ी, मन में बहुत गहरे छिपी बैठी कुछ कविताएं मौका पाते ही जेहन में उभर आती हैं, मानो बरसात की बूंदें पाकर अनायास उग आई घास हो या गरीबी में कुछ पैसों का जुगाड़ होते ही मन को घेर लेने वाली ढेर सारी अतृप्त इच्छाएं। मानसून की अगवानी करती बौछार के बाद बेतरतीब पनप आई घास को देख कर शैशव में पढ़ी पंक्तियां याद आती हैं- 'यह हरी घास लहलही घास, बिछ रही घरों के आसपास।'

घास नटखट है। समझदार राही को भी दिग्भ्रमित कर देती है। सत्रहवीं शताब्दी में 'हरित भूमि तृण संकुलित, समझु परे नहीं पंथ' वाले बिंब के माध्यम से गोस्वामी तुलसी दास ने विकल्पों से जूझते व्यक्ति की मनोदशा का बयान किया था। लेकिन इसके विपरीत सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के इंग्लैंड में भव्य दुर्गों (कैसल्स) के सामने लंबे-चौड़े घास के मैदान लगाने की परंपरा नितांत व्यावहारिक थी।

हरे-भरे पेड़ लगाए जाएंगे तो शत्रु छिपता-छिपाता पास तक आ जाएगा, लेकिन हरी घास के लंबे-चौड़े मैदानों से घिरे कैसल के प्रहरी उसे दूर से ही ताड़ सकेंगे। भारत में उपवनों की परंपरा तो थी, लेकिन हरी घास के मैदान के चाहने वाले नहीं थे। यूरोपीय जलवायु में घास के साल भर लहलहाते रहने के लिए समुचित वर्षा थी, कम आबादी के कारण लंबे-चौड़े चरागाह थे।

उनमें चरती भेड़-बकरियां घास को इतनी छूट नहीं देती थीं कि राही को पंथ न सूझे। हरे-भरे मैदानों की खूबसूरती पर इटली के लैंडस्केप चित्रकार इतना रीझे कि वह इतालवी चित्रकला का विशिष्ट अंग बन गई। इंग्लैंड में लान की खूबसूरती पर आधारित उद्यानों का जादू अठारहवीं शताब्दी के फ्रांस में वैभव के प्रतीक प्रासादों के सिर पर चढ़ कर बोला। फिर तो अमेरिका ने भी नकल की। भारत में मुगल स्थापत्य कला ने भव्य इमारतों के चारों तरफ हरी घास के मैदान और फलों के वृक्षों से तो सजाया, लेकिन हमारे यहां निजी आवासों को लान से सजाने की शैली उपनगरीय आवासीय व्यवस्था के साथ ही आ पाई।


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