सम्पादकीय

वंचितों का हक

Subhi
5 April 2022 5:33 AM GMT
वंचितों का हक
x
जिसकी आबादी देश में पचासी फीसद से अधिक है, उसकी सरकारी नाकरी में भागीदारी सिर्फ 40.15 फीसदी है। आज इक्कीसवीं सदी में भी भारत में सामाजिक से लेकर हर स्तर पर एक विचित्र भेदभाव पूर्ण रवैया कायम है।

Written by जनसत्ता: जिसकी आबादी देश में पचासी फीसद से अधिक है, उसकी सरकारी नाकरी में भागीदारी सिर्फ 40.15 फीसदी है। आज इक्कीसवीं सदी में भी भारत में सामाजिक से लेकर हर स्तर पर एक विचित्र भेदभाव पूर्ण रवैया कायम है। विधायिका, न्यापालिका, मीडिया और निजी क्षेत्रों में इसकी खाई और ज्यादा है। जब प्रोन्नति में आरक्षण के खिलाफ याचिका दायर किया गया तो केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया और बताया कि देश में बबाल मच जाएगा। पहले ही इतनी हकमारी हो गई है कि जिसकी भरपाई असंभव है।

सरकार भी अब जान गई है कि वंचित समाज अब जागरूक हो गया है, अपने हक-हकूक के लिए आंदोलन कर सकते हैं। अपनी नीति का बचाव करते हुए केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि यह इस अदालत द्वारा निर्धारित संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है। सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है।

केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि एससी और एसटी कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण देने से प्रशासन की दक्षता में किसी भी तरह की बाधा नहीं आई। सरकार ने कहा कि इसका लाभ केवल उन्हीं अधिकारियों को दिया गया जो मानदंडों को पूरा करते हैं और उन्हें फिट घोषित किया जाता है। 75 मंत्रालयों और विभागों का ब्योरा पेश करते हुए केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि कुल कर्मचारियों की संख्या 27,55,430 है।

इनमें से 4,79,301 एससी, 2,14,738 एसटी समुदाय से आते हैं। इसके अलावा ओबीसी कर्मचारियों की संख्या 4, 57,148 है। फीसद के लिहाज से केंद्र सरकार के कुल कर्मचारियों में एससी 17.3 फीसद, एसटी 7.7 फीसद और ओबीसी 16.5 फीसद हैं। इन सरकारी आंकड़ों को देखकर वंचितों की आंखें खुलनी चाहिए और अपने अधिकार के लिए एक होना चाहिए।

'जीने का नाम जिंदगी' (दुनिया मेरे आगे, 31 मार्च) शीर्षक से एक सुंदर लेख पढ़ा। यह लेख जीवन की तमाम परेशानियों से जूझते हुए जीने का सुख खोज लेने के विषय पर आधारित था। इसके जरिए जीवन की परेशानियों से थक चुके लोगों के मन में एक नए सिरे से जीवन की शुरुआत करने की उम्मीद जरूर जगी होगी। यह लेख मुझे प्रसिद्घ नाटक 'बगिया बाछाराम की' तक भी ले गया होगा जो हास्य की चासनी में पगकर भी समाज की एक बुराई पर जोरदार हथौड़ा मारता है। इसे पढ़ते हुए दुनिया के महान लेखक टास्लटाय भी याद आए। उनकी कहानियां भी जीवन में छोटी-छोटी खुशियों को समेटकर जिंदगी को आसान और खुशहाल बनाने का संदेश देती हैं।

कतरा-कतरा खुशियों से ही जिंदगी की फसल लहराती है। उसमें आशा और उम्मीद के फल पनपते हैं। आज के समय में जब दुनिया और उसमें बसने वाले बाशिंदे तनाव, अवसाद जैसी परेशानियों से घिरे हुए हैं, उस समय के बीच यह लेख लोगों को अपने भीतर झांकने की सलाह देता है। हो सकता है कि एक छोटी-सी शुरुआत ही एक बड़े सुधार का कारण बने।


Next Story