सम्पादकीय

इंद्रधनुषी भ्रम

Subhi
29 Aug 2022 5:39 AM GMT
इंद्रधनुषी भ्रम
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सुरेश सेठ का लेख ‘मुद्रास्फीति के विस्तार से हठी इनकार क्यों’ (26 अगस्त) देश में कमरतोड़ महंगाई के बावजूद सरकार द्वारा इस कटु सत्य को स्वीकार न करने का पर्दाफाश करने वाला था।

Written by जनसत्ता; सुरेश सेठ का लेख 'मुद्रास्फीति के विस्तार से हठी इनकार क्यों' (26 अगस्त) देश में कमरतोड़ महंगाई के बावजूद सरकार द्वारा इस कटु सत्य को स्वीकार न करने का पर्दाफाश करने वाला था। आटा, खाने के तेल, सब्जियां, दालें आदि इतनी महंगी हैं कि आम आदमी के लिए दो जून की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो रहा है।

नोटबंदी, कोरोना महामारी, जीएसटी, रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद कीमतों में जो आसमान छूती वृद्धि हुई है, बेकारी बढ़ी है, लोगों की क्रयशक्ति कम हुई है, उससे अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। कुछ समय पहले देश में थोक महंगाई दर 15.4 प्रतिशत तथा खुदरा महंगाई दर 7.8 प्रतिशत थी, जोकि जुलाई में कम होकर 6.7 प्रतिशत हो गई। आरबीआइ ने कीमतों में इस थोक तथा खुदरा महंगाई दर पर चिंता व्यक्त की है।

कीमतों को नियंत्रित करने के लिए उसने रेपो दर में वृद्धि की और कहा कि इससे लोग बैंकों में पैसा ज्यादा जमा करवाएंगे, उनकी आमदनी में वृद्धि होगी और क्रयशक्ति के बढ़ने से मांग में वृद्धि होगी और उत्पादन में भी वृद्धि होगी। पर आरबीआइ रेपो दर में वृद्धि के दूसरे पहलू को भूल गया कि इससे निवेश के ऊपर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और उत्पादन कम होगा, रोजगार तथा आमदनी कम होने के कारण क्रय शक्ति कम हो जाएगी और देश में कीमतें और बढ़ जाएंगी।

मगर सरकार अपनी जिद पर अड़ी हुई है कि भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति और देशों के मुकाबले, कोरोना महामारी के विपरीत प्रभाव के बावजूद, बहुत बेहतर स्थिति में है। सरकार का पहले तो संसद में महंगाई की समस्या पर चर्चा करने से इनकार करना और विपक्ष के सदस्यों का शोर-शराबा करते हुए इसके विरुद्ध संसद से बहिर्गमन के बाद परिचर्चा के दौरान दावा करना कि भारत में संसार के अन्य देशों के मुकाबले कम वृद्धि हुई है।

मगर कटु सत्य है कि देश में आसमान छूती कीमतों पर लोगों के लिए गुजारा करना कठिन हो रहा है। सरकार का बार-बार भारत की पांचवी विकसित अर्थव्यवस्था का दावा करना और देश में कीमतों में कम वृद्धि की बात करना इंद्रधनुषी भ्रम की तरह है। बेशक इन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में कुछ कमी होने की बातें सुनने को मिलती हैं, लेकिन हमारी तेल कंपनियां अपने घाटे का रोना रोकर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कम होती कीमतों का फायदा घरेलू उपभोक्ताओं को नहीं देना चाहते।

आम जनता में बेकारी, आमदनी में कमी, भविष्य निधि से पैसा निकाल कर खर्च करने की प्रवृत्ति आदि मांग को बढ़ने नहीं देती, जिससे देश का विकास बाधित हो रहा है। सरकार को आवश्यक कदम उठा कर बढ़ती हुई कीमतों से आम जनता को राहत दिलानी चाहिए, वक्त का यही तकाजा है

संपादकीय 'अवैध की जमीन' ( 26 अगस्त) पढ़ा। राजधानी दिल्ली की बात करें तो सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करके अवैध निर्माण की धुरी एमसीडी के अधिकारियों, पुलिस तथा राजनेताओं के इर्द-गिर्द घूमती है। आवास तथा व्यावसायिक भवन उपलब्ध कराना केंद्र तथा राज्य सरकारों का संवैधानिक और नैतिक दायित्व है। मगर इस दायित्व की कसौटी पर प्राय: सभी सरकारें विफल रही हैं।

किसी आम आदमी के निर्माण कार्य शुरू करते ही एमसीडी, स्लम विभाग, पुलिस आदि कई महकमे आ धमकते हैं। कई निर्वाचित जनप्रतिनिधि तो राजनीतिक नजरिए से जिसका चाहें निर्माण कार्य रुकवा देते हैं। इतना ही नहीं, निर्माण कार्य तुड़वाने में निर्दयता पूर्वक दबाव भी प्रशासन पर बनाते हैं। बेचारा शरीफ नागरिक तो अपने मकान-दुकान की जरूरत पूरी करने के चक्कर में अधमरा हो जाता है।

दूसरी ओर सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करके अवैध निर्माण करने वाले भूमाफिया, प्रशासनिक अधिकारियों, पुलिस और ब्लैकमेलर्स को खुशी-खुशी लाखों रुपए रिश्वत देकर कई गुना अधिक कीमत की संपत्ति के मालिक बन जाते हैं। हैरानी की बात तो यह है कि बिना किसी वाजिब कागजात के इन्हें पानी, बिजली की सुविधा, संपत्ति कर की रसीदें और ट्रेड लाइसेंस भी मिल जाते हैं। जरूरत ऐसे भूमाफिया पर शिकंजा कसने की है।


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