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देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना ने कहा है कि संसद में बगैर गंभीर बहस के कानून बनाने की तेज होती प्रवृत्ति न केवल कानूनों की क्वॉलिटी को प्रभावित कर रही है
देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना ने कहा है कि संसद में बगैर गंभीर बहस के कानून बनाने की तेज होती प्रवृत्ति न केवल कानूनों की क्वॉलिटी को प्रभावित कर रही है बल्कि न्यायपालिका पर काम का बोझ भी बढ़ा रही है। आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश के मौके पर सुप्रीम कोर्ट बार असोसिएशन की ओर से आयोजित समारोह में दिया गया जस्टिस रमना का यह संबोधन इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि यह हमें याद दिलाता है कि संसदीय लोकतंत्र में शासन के कोई भी एक अंग अगर अपने कामकाज में लापरवाही बरतता है तो उसका प्रभाव शासन के अन्य अंगों पर और अंतत: पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पड़ता है।
जस्टिस रमना ने यह बात ऐसे समय कही, जब संसद का मॉनसून सत्र हंगामे और शोर-शराबे की भेंट चढ़ कर समाप्त हुआ है। इस सत्र के दौरान करीब-करीब सारे विधेयक बिना बहस के पारित किए गए। हालांकि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही इस स्थिति को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हैं, लेकिन इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए इनमें से कोई भी तैयार नहीं। हमेशा की तरह सत्ता पक्ष इसके लिए विपक्ष की हठधर्मिता को और विपक्ष सरकार की जिद को दोषी बता रहा है। समझने की बात यह है कि इस तरह का परस्पर दोषारोपण हालात को सुधारने में या मौजूदा स्थिति के दुष्परिणामों को कम करने में रत्ती भर भी मदद नहीं करता।
चीफ जस्टिस रमना ने बाकायदा उदाहरण देकर बताया कि कैसे इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट अमेंडमेंट बिल पर बहस के दौरान सीपीएम से जुड़े तमिलनाडु के एक सांसद ने उसके संभावित दुष्परिणामों पर रोशनी डाली थी और बताया था कि इसका श्रमिकों पर बुरा असर पड़ेगा। कानून बनते समय संसद में पर्याप्त बहस न होने से यह साफ नहीं होता कि आखिर संबंधित कानून लाने के पीछे मकसद क्या है। दूसरी बात यह कि बहस के अभाव में कानूनों में संदेह और दुविधा की काफी गुंजाइश रह जाती है। इससे जहां अदालतों में याचिकाओं की संख्या बढ़ती है, वहीं कानूनों की व्याख्या करने का अदालत का काम भी कठिन हो जाता है।फिर भी, संसद में बहस का न होना समस्या का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि जब बहस होती भी है तो उसका वैसा स्तर नहीं होता जो अपेक्षित है। संसद में बहस के स्तर में भी गिरावट आई है। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों खेमों में राजनीतिक नेतृत्व को दूसरे पक्ष के मत्थे दोष मढ़ कर अपनी जिम्मेदारी समाप्त मान लेने की परिपाटी से ऊपर उठना पड़ेगा। तभी संसद की पुरानी गरिमा बहाल होगी और तभी वह कानून बनाने की अपनी जिम्मेदारी का सही ढंग से निर्वाह कर पाएगी।
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