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Written by जनसत्ता: जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के नेता यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा उन सभी अलगाववादी नेताओं और आतंकियों के लिए कड़ा संदेश है जो राष्ट्र विरोधी गतिविधियों और हिंसा फैलाने में लगे हैं। यासीन मलिक को यह सजा आतंकवाद फैलाने के लिए पैसे जुटाने और देने के मामले में मिली है।
हालांकि इस अलगाववादी नेता पर भारतीय वायुसेना के चार जवानों की हत्या, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री (दिवंगत) मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद के अपहरण और कश्मीरी पंडितों की हत्या जैसे संगीन आरोपों में भी मामले चल रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी संगठन राज्य में उग्रवादी गतिविधियों के लिए पैसा मुहैया करवाते रहे हैं। लेकिन कोई कठोर कार्रवाई नहीं होने की वजह से ये बचते आ रहे थे। राष्ट्रीय जांच एजंसी ने आतंकी वित्त पोषण मामले का जिस तत्परता के साथ पर्दाफाश किया और अलगाववादियों पर शिकंजा कसा, उसी का नतीजा है कि यासीन मलिक को सजा संभव हो पाई।
गौरतलब है कि अस्सी के दशक के मध्य से ही कश्मीर में अलगाववादी संगठनों की गतिविधियां जोर पकड़ चुकी थीं। तब से ही ये संगठन पाकिस्तान के इशारे पर काम करते रहे हैं। इसके लिए इन्हें वहां से पैसा व अन्य मदद मिलती रहती है, जो आज भी जारी है। इसके अलावा अलगाववादी संगठन अपने स्तर पर भी पैसे की उगाही करते रहे हैं। कुछ साल पहले कश्मीरी छात्रों को पाकिस्तान के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों में दाखिला दिलाने के नाम पर पैसा वसूलने के मामले का खुलासा भी हुआ था। यह काम अलगाववादी संगठन ही कर रहे थे।
इस पैसे का इस्तेमाल घाटी में आतंकी गतिविधियोें, पथराव और दूसरी वारदातों को अंजाम देने के लिए और नौजवानों को आतंकी संगठनों में भर्ती करने जैसे कामों में इस्तेमाल होता रहा है। एनआइए की जांच में सारे मामले का खुलासा हुआ। कश्मीर में अलगाववादी संगठन लंबे समय से जिस तरह की राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं, उसका खमियाजा वहां के बेगुनाह लोगों को उठाना पड़ा है। पिछले साढ़े तीन दशक में हजारों लोग हिंसा का शिकार हुए। लाखों कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करने को मजबूर होना पड़ा।
नौजवानों का भविष्य चौपट हो गया। सबसे दुखद तो यह कि नौजवान पीढ़ी को आतंकी संगठनों में भर्ती होने के लिए मजबूर किया गया। आखिर यह क्यों हुआ? सिर्फ इसीलिए कि अलगाववादी संगठनों की जड़ें गहरी हों। हालांकि अलगाववादी संगठनों को लेकर पूर्व सरकारों का उदार रुख भी समस्या का बड़ा कारण रहा। अगर अलगाववादी संगठनों पर पहले ही नकेल कसने की हिम्मत दिखाई होती तो शायद हालात इतने नहीं बिगड़ते।
यासीन मलिक को सजा से यह भी साफ हो गया है कि अगर पुलिस और जांच एजंसियां मुस्तैदी से काम करें, पर्याप्त सबूत जुटा कर अदालत के समक्ष रखें और ऐसे मामलों में जल्द सुनवाई हो तो आतंकवाद में लिप्त लोगों को सीखचों के पीछे पहुंचाने में देर नहीं लगती। वरना अक्सर यह देखा गया है कि सबूतों के अभाव में आतंकी छूट जाते हैं। यासीन मलिक को सजा पर पाकिस्तान के भीतर बौखलाहट पैदा होना भी स्वाभाविक है।
भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित और पूर्व क्रिकेटर शाहिद अफरीदी जैसे लोग मलिक के समर्थन में उतर आए हैं। पर इससे होना क्या है? यह तो जाहिर ही है कि जेकेएलएफ को पाकिस्तान से हर तरह का समर्थन मिलता रहा है। मलिक को सजा के बाद पाकिस्तान को भी यह समझना चाहिए कि वह भारत के खिलाफ जिन लोगों का इस्तेमाल करेगा, उनसे कानून के दायरे में ऐसे ही निपटा जाएगा।