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- इस दौर की दुश्वारियां
तवलीन सिंह: अजीब दौर से गुजर रहा है अपना देश। इतना अजीब दौर है कि जिनका काम है शासन चलाना, वे उलझे हुए हैं इस चिंता में कि हम क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं, शादी किससे कर रहे हैं, प्यार किससे कर रहे हैं। इन चीजों के आधार पर हमारे शासक हमें आजकल प्रमाण-पत्र देने में लगे हुए हैं।
सो, बिहार के मुख्यमंत्री ने पिछले सप्ताह फैसला सुनाया कि जो लोग शराब पीते हैं, उनको भारतीय नहीं कहा जा सकता। दक्षिणी दिल्ली के एक मामूली अफसर ने तय किया कि नवरात्रों में मीट-मुर्गे बेचने वाली दुकानें बंद रहेंगी, हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए। यह फैसला हजम ही कर रहे थे हम कि भारतीय जनता पार्टी के एक सांसद ने कहा कि इस फैसले को पूरे देश में लागू करना चाहिए।
हमको पूछना चाहिए ऊंची आवाज करके कि ये लोग होते कौन हैं इस तरह के फैसले लेने वाले। मगर माहौल कुछ ऐसा बन गया है 'न्यू इंडिया' में कि लोग डर के मारे इस तरह के प्रश्न नहीं पूछते हैं। जानते हैं कि उल्टे-सीधे सवाल करने वालों का हश्र अक्सर यह होता है कि केंद्र सरकार की प्रवर्तन निदेशालय जैसी जांच एजंसियां पहुंच जाती हैं आधी रात को आपसे पूछताछ करने या फिर किसी और तरह आपकी शामत आ सकती है।
पिछले सप्ताह दो पत्रकारों को विदेश जाने से उस समय रोका गया, जब वे जहाज पर चढ़ने वाले थे। दोनों ने मोदी सरकार की नीतियों का विरोध किया है। जब शाहरुख खान के बेटे को एक पूरा महीना जेल में बंद किया जा सकता है झूठे आरोप लगा कर, तो हम आप का क्या हो सकता है?
मगर डर डर के ही सही, सवाल तो हमको पूछने चाहिए कि लोगों की निजी जिंदगी के फैसलों में क्यों आजकल सरकारी अधिकारी और राजनेता दखल दे रहे हैं, जब अपना काम नहीं कर पा रहे हैं।
स्कूल-अस्पताल बेहाल हैं, महंगाई का यह आलम है कि पिछले दो हफ्तों में हर दूसरे दिन पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े हैं। और जिनका काम है इन चीजों को ठीक करना, वे उलझे हैं खाने-पीने के प्रतिबंधों में, ताकि प्रशासनिक विफलताओं से हमारा ध्यान भटका रहे।
पिछले दिनों मुझे विश्वास-सा हो गया कि सोची-समझी रणनीति के तहत हिंदुओं और मुसलमानों में तनाव फैलाया जा रहा है, ताकि असली मुद्दों से हमारा ध्यान हट जाए। कर्नाटक में चुनाव नजदीक आ रहे हैं, सो वहां पहले हिजाब को लेकर खूब हल्ला मचा, फिर आई बारी हलाल की और इतने में नवरात्रों में मीट की दुकानें बंद करवाने का सिलसिला शुरू हुआ।
इन मुद्दों के बीच डूब गया है शिक्षा का मुद्दा। स्कूल अब खुल गए हैं दो साल बंद रहने के बाद, लेकिन समस्या यह है कि लाखों की तादाद में बच्चे ऐसे हैं देश में, जो लिखना-पढ़ना भूल कर वापस लौट रहे हैं स्कूलों में।
अनुमान लगाया जाता है कि भारत के साठ फीसद बच्चे ऐसे हैं, जो पिछले दो वर्षों में आनलाइन पढ़ाई करने के काबिल नहीं थे, क्योंकि उनके माता-पिता स्मार्ट फोन खरीदने की क्षमता नहीं रखते हैं। इन बच्चों में कुछ ऐसे हैं, जो दस-ग्यारह बरस के हैं, लेकिन अक्षर तक पहचान नहीं पाते हैं।
कोरोना ने हमें अगर सिखाया होता कि स्वास्थ्य सेवाओं में गंभीर खामियां हैं, तो कुछ तो इस महामारी से लाभ होता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ है। आज भी 1445 भारतीयों पर सिर्फ एक डाक्टर उपलब्ध है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से एक हजार लोगों के लिए कम से कम एक डाक्टर होना चाहिए।
मेडिकल कालेजों की कितनी कमी है, हमको तब मालूम हुआ जब यूक्रेन से हमारे बीस हजार मेडिकल छात्रों को वापस घर ले आने की नौबत आई। ऐसा क्यों है कि इन चीजों की बात करने के बदले हमारे शासक लगे रहते हैं ऐसे मुद्दों को उठाने में, जो बेमतलब हैं और जिनसे देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरारें और गहरी हो जाती हैं?
ऐसे सवाल करने को हम पत्रकार भी तैयार नहीं हैं 'न्यू इंडिया' में। डर इतना है हममें कि जब डब्ल्यूएचओ ने पिछले सप्ताह ऐलान किया कि हमारी देशी कोवैक्सीन में नुक्स हैं, जिनको सुधारे बिना उसका इस्तेमाल बंद हो जाएगा, तो शायद ही किसी अखबार या टीवी चैनल ने इसका जिक्र किया। और जहां किया गया, वहां दबी जबान में।
नतीजा यह कि निकट भविष्य में देश के बड़े मुद्दे यही रहेंगे कि नवरात्रों में हमको क्या खाना चाहिए और क्या शराब पीने से हम वास्तव में अपनी भारतीय पहचान खो देते हैं। ऊपर से है मुद्दा लव जिहाद का। इसकी चर्चा खूब होने वाली है उन राज्यों में, जहां इस साल चुनाव होने वाले हैं। ऐसे ही चलता रहा देश, तो वह दिन दूर नहीं, जब हममें और कट्टरपंथी इस्लामी मुल्कों में फर्क मिट जाएगा।
हम भी उनकी तरह इतने प्रतिबंध लगा बैठेंगे खाने-पीने और पहनावे पर कि परिवर्तन तो आएगा जरूर, लेकिन ऐसा जो हमें पीछे की तरफ लेकर जाएगा, आगे नहीं। ऐसा अगर होता है, तो हमको भारत के महाशक्ति बनने का सपना भूलना होगा। अपने पड़ोसी दुश्मन मुल्क से हमको कम से कम इतना तो सीखना चाहिए कि किसी खोए हुए पुराने दौर की खोज करने से नुकसान होता है, लाभ नहीं।
इमरान खान ढेर सारी उम्मीदें लेकर बने थे प्रधानमंत्री 2018 में और अब जब जाने का समय आ गया है उनका, तो पीछे की तरफ जाने की बातें करते फिर रहे हैं। अपने देशवासियों से जब वोट मांगेंगे, तो उनका वादा होगा पाकिस्तान में रियासत-ए-मदीना कायम करने का।