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सीएसई यानी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की हालिया रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक अपशिष्ट दुनिया के सबसे बड़े पर्यावरणीय समस्याओं में से एक है। भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आठ ग्राम प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादित होता है। इसकी उत्पादकता अमीर राज्यों में राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। इस लिहाज से गोवा के बाद दिल्ली दूसरे नंबर पर है। सीपीसीबी यानी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2018-19 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 33 लाख टन प्रतिवर्ष प्लास्टिक अपशिष्ट पैदा होता है।
कोरोना काल में सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है। चाहे वह पीपीई किट के रूप में हो या प्लास्टिक दस्ताने के रूप में। कोविड बायोमेडिकल कचरे की मात्र मई में 25 टन प्रतिदिन से 14 गुना वृद्धि के साथ जुलाई में 350 टन तक पहुंच गई। इसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि इन कचरों के प्रबंधन की कोई ठोस पर्यावरण केंद्रित व्यवस्था नहीं है। अमूमन इसके निपटारे के लिए लोग इसे खुली हवा में जला देते हैं, जो वायु प्रदूषण को बढ़ाता है। वहीं हाल ही के शोधकार्य यह दर्शाते हैं कि वायु प्रदूषण कोरोना संक्रमण को बढ़ा सकता है।
प्रदूषण अधिक होने पर वायरस धूल कणों और वातावरण में मौजूद अन्य सूक्ष्म कणों के साथ मिलकर हवा के साथ थोड़ी अधिक दूरी तक जा सकता है। साथ ही अधिक समय तक अस्तित्व में रह सकता है, जो संक्रमण बढ़ने का कारण बन सकता है। आज के समय में प्लास्टिक अपशिष्ट की समस्या को विकराल बनाने में कई प्रमुख कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। जैसे देश में सिंगल यूज प्लास्टिक की एक सही परिभाषा का न होना, घरेलू स्तर पर प्लास्टिक्स सेग्रीगेशन, कलेक्शन एवं परिवहन का अभाव, जमीनी स्तर पर एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी का न उतर पाना एवं देश में प्लास्टिक अपशिष्ट से संबंधित डाटा की अनुपलब्धता है।
इन सभी समस्याओं के बावजूद प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम 2016, पर्यावरण मंत्रलय का ईआरपी यानी एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी दिशानिर्देश 2020 के अनुसार प्लास्टिक अपशिष्ट का प्रबंधन उसके उत्पादकों की जिम्मेदारी है एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2022 तक भारत को सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्ति दिलाने का लक्ष्य सराहनीय कदम है। देश को प्लास्टिक अपशिष्ट से मुक्ति दिलाना ही होगा। इसमें सरकार, संस्थाओं एवं समाज को स्वस्थ एवं सुखी पर्यावरण के लिए साथ मिलकर कुछ प्रमुख कदम उठाने होंगे, जो इस प्रकार हैं- रीसाइकिल से संबंधित उद्योग धंधे को बढ़ावा देना होगा। अभी यह काम जीएसटी के पांच प्रतिशत वाले टैक्स स्लैब में आता है, जो कि इस क्षेत्र में होने वाले लाभ की तुलना में अधिक है।
सरकार द्वारा इसे कम करने के साथ ही इसके लिए प्रोत्साहन देने की भी जरूरत है, ताकि अपशिष्ट पदार्थो को अन्य मूल्यवान वस्तुओं में बदला जा सके एवं पुनर्चक्रण किया जा सके। सिंगल यूज प्लास्टिक की राष्ट्रीय स्तर पर एक समान परिभाषा तय करने के साथ ही जिन प्लास्टिकों को पुनर्चक्रण नहीं किया जा सकता, उस पर पूर्णतया पाबंदी लगाने की जरूरत है। राष्ट्रीय स्तर पर नागरिकों को एवं विशेषकर कूड़ा बीनने वालों को प्लास्टिक अपशिष्ट को पृथक करने के लिए जागरूक एवं विशेष प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है, ताकि वे विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक अपशिष्ट को पृथक कर सकें एवं उसे आसानी से पुनर्चक्रण किया जा सके।
उत्पादकों तक सुनिश्चित हो प्लास्टिक की वापसी : जैसाकि हम सभी जानते हैं कि भारत सरकार के एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पांसिबिलिटी के तहत प्लास्टिक प्रबंधन का काम उसके उत्पादनकर्ता का है। लेकिन इसमें सबसे बड़ी समस्या प्लास्टिक उत्पाद ग्राहकों के पास जाने एवं उसे उपयोग करने के बाद कंपनी उसे दोबारा किस प्रकार प्राप्त करे, इसकी है। प्लास्टिक वापस करने की प्रक्रिया को कारगर बनाने के लिए जिस प्रकार हरेक उत्पाद पर अधिकतम बिक्री मूल्य तय होता है, उसी प्रकार हमें प्लास्टिक उत्पाद पर मैक्सिमम प्राइस फॉर रिटर्निंग प्लास्टिक तय करना होगा। इसका एक वापसी मूल्य तय होना चाहिए, ताकि ग्राहक प्लास्टिक के प्रयोग के बाद विक्रेता को वापस कर रकम प्राप्त कर सके।
इस प्रक्रिया में उत्पादक कंपनियों को उसके ग्राहकों द्वारा प्रयोग किए गए प्लास्टिक आसानी से प्राप्त हो जाएंगे। रीसाइकिल प्रक्रिया, सड़क निर्माण, सीमेंट फैक्ट्री में भस्मीकरण आदि की सहायता से उत्पादक इस प्लास्टिक को आसानी से प्रबंधित कर सकता है। वहीं इसके लागू होने पर इन सारी प्रक्रियाओं से बचने के लिए कंपनियां प्लास्टिक का कम उत्पादन भी करेंगी और बायोडिग्रेडेबल उत्पादों पर जोर देगी। एमपीआरपी कूड़ा बीनने वालों को प्लास्टिक कूड़ों का उचित मूल्य दिलाकर उनकी आर्थिक स्थिति को भी सुधारने में मदद करेगा। यह क्रांतिकारी कदम होगा।
इन सभी के अलावा हमें अपने प्राचीन प्राकृतिक केंद्रित सांस्कृतिक मॉडल को भी अपनाना होगा, जिसमें आज के प्लास्टिक कप के स्थान पर मिट्टी के कुल्हड़, फोम के प्लेट के स्थान पर केले का पत्ता या सखुआ व एरेका पत्ते का प्लेट, पॉलीथिन कैरी बैग के स्थान पर कपड़े या जूट का थैला आदि का प्रयोग होता था। सतत पोषणीय विकास का मूल मंत्र इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है। अत: हमें अपने जीवन में गौरव बोध के साथ इन सभी वस्तुओं को अपनाना चाहिए।