सम्पादकीय

उमर अब्दुल्ला: बोलो जयहिन्द

Gulabi
17 Jan 2021 3:54 PM GMT
उमर अब्दुल्ला: बोलो जयहिन्द
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जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री और नेशनल कान्फ्रैंस के उपाध्यक्ष श्री उमर अब्दुल्ला का यह कथन महत्वपूर्ण है कि

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री और नेशनल कान्फ्रैंस के उपाध्यक्ष श्री उमर अब्दुल्ला का यह कथन महत्वपूर्ण है कि उनके राज्य की स्थिति के बारे में हुए संवैधानिक परिवर्तनों में से कुछ को बदलना शायद अब मुमकिन नहीं होगा मगर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस राज्य का दर्जा बदलने का मामला लम्बित है। श्री अब्दुल्ला की राय में संवैधानिक पक्ष पर गौर करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में यह ताकत है कि वह वक्त की घड़ी को उल्टा घुमा सके किन्तु इस तरफ फिलहाल उसकी तवज्जों नहीं है।

विगत वर्ष 5 अगस्त को देश की संसद ने प्रस्ताव पारित करके जम्मू-कश्मीर से धारा 370 व 35 (ए) को हटा कर इस राज्य को दो केन्द्र शासित राज्यों में बदल दिया था जिसकी वजह से इस राज्य की सामाजिक से लेकर राजनीतिक व भौगोलिक स्थितियों में आमूलचूल परिवर्तन आ गया था। सरकार के इस कदम का विरोध राज्य की क्षेत्रीय पार्टियों पीडीपी व नेशनल कान्फ्रैंस आदि ने पुरजोर तरीके से किया मगर अब यह कहा जा सकता है कि राज्य की जनता ने इस बदलाव को स्वीकार करना शुरू कर दिया है क्योंकि दो महीने पहले इस राज्य में हुए जिला विकास परिषदों के चुनावों से यह सिद्ध हो गया है कि आम लोग परिवर्तन से मिले नागरिक अधिकारों का उपयोग खुशी-खुशी कर रहे हैं।


इन चुनावों से यह भी सिद्ध हो गया है कि राज्य की क्षेत्रीय पार्टियां जमीनी राजनीति में असंगत नहीं हुई हैं क्योंकि पूरे राज्य में आम मतदाताओं ने उन्हें अच्छा-खासा समर्थन दिया है। बेहतर होगा कि श्री अब्दुल्ला बदले हालात को खुले दिल से स्वीकार करें और इस सन्दर्भ में देश की समस्त जनता की भावनाओं को आदर के साथ देखें। सम्पूर्ण भारत के लगभग सभी राज्यों के लोग इस मत के माने जाते हैं कि आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में विलय के लिए बनाया गया विशेष संवैधानिक प्रावधान धारा 370 (अनुच्छेद) विलयीकरण में 'फांस' का काम करता था।
बहुसंख्य देशवासी यह मानते हैं कि इस धारा की वजह से कश्मीर की जनता शेष भारत के साथ 'बन्धी' हुई बेशक थी मगर देश के अन्य राज्यों की जनता के समान 'गुंथी' हुई नहीं थी। अतः कश्मीर विलय के बाद से ही भारत की अधिसंख्य जनता इस धारा को भारत व कश्मीर के बीच 'गांठ' मानती थी। 5 अगस्त, 2019 को भारत की संसद में मोदी सरकार ने इस गांठ को खोल कर एकता सूत्र का बिना जोड़ लगाये विस्तार किया और केरल के समुद्री तटों से लेकर कश्मीर की घाटियों तक को एक ही तार से बांध दिया परन्तु जहां तक 5 अगस्त, 2019 को किये गये संवैधानिक पक्ष का सवाल है वह सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित ही है।

श्री उमर का यह तर्क कहीं न कहीं सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों को ही उद्वेलित कर सकता है कि जिस प्रकार देश की इस सबसे बड़ी अदालत ने किसान आन्दोलन का संज्ञान लिया है उसी प्रकार उसे उनके राज्य में किये गये बदलाव के समय उठे आन्दोलन का भी संज्ञान लेना चाहिए था। श्री उमर के आंकलन में एक खटका यह है कि जम्मू-कश्मीर का परिवर्तन पूरी तरह राजनीतिक व सामाजिक होते हुए आर्थिक व संवैधानिक मौलिक अधिकारों से आम जनता को लैस करता है जबकि किसानों का आन्दोलन पूरी तरह आर्थिक कारणों की व्याख्या करता है। कश्मीर में बदलाव से यहां के लोग आर्थिक रूप से अधिक सशक्त होंगे और लोकतान्त्रित सत्ता में उनकी सक्रिय भागीदारी बढे़गी जबकि किसानों के सन्दर्भ में उनकी आर्थिक ताकत सरकारी संरक्षण के कम हो जाने की वजह से कमजोर हो सकती है। इसके बावजूद दोनों ही मामलों में भारत की संसद ने अपने अधिकारों का प्रयोग करके बदलाव किये हैं। वैसे अगर और घूम कर देखा जाये तो तीन तलाक कानून से लेकर नागरिकता कानून (सीएए) व लव जेहाद कानून भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिकाओं के रूप में विचारार्थ पड़े हुए हैं। ये सभी कानून या तो संसद ने बनाये हैं अथवा राज्यों की सरकारों ने बनाये हैं। इनकी संविधान की कसौटी पर खरा उतरने की परीक्षा केवल सर्वोच्च न्यायालय ही कर सकता है। नागरिकता कानून को लेकर देश भर में भारी आन्दोलन भी हुआ और विभिन्न राज्य सरकारों ने इसे लागू तक न करने की चेतावनी भी दी।

इस सन्दर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि कानून के खिलाफ याचिका दायर करने वालों के वकील श्री दुष्यन्त दवे ने न्यायालय में गुहार लगाई थी कि जब तक विद्वान न्यायाधीश इस कानून की संवैधानिकता पर फैसला दें तब तक देशव्यापी आंदोलन को देखते हुए इस पर रोक लगा दी जाये जबकि कृषि कानूनों के बारे में किसी भी याचिकाकर्ता ने एेसी कोई मांग नहीं की मगर फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने इन पर रोक लगा दी। अतः कुछ सवाल एेसे होते हैं जिन्हें हमें न्यायालय के विवेक पर ही छोड़ देना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय को अपनी वरीयताएं करने का हक है और उसी के अनुसार वह कार्य करता है क्योंकि देश का शासन चलाना उसका काम नहीं है बल्कि संविधान के अनुसार काम होते देखना उसका दायित्व है। अतः श्री उमर अब्दुल्ला को ध्यान रखना चाहिए कि भारत के जनमानस की भावनाओं को देखते हुए जम्मू-कश्मीर की बदली हुई परिस्थितियां 'एकात्म भारत' की प्रभुसत्ता के अनुकूल हैं। हां इतना जरूर है कि वह इस राज्य को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की लोकतान्त्रिक मांग को यदि उठाते हैं तो देशवासियों को इस पर कोई एेतराज नहीं होगा।
इसके साथ ही उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि वह उन स्व. शेख अब्दुल्ला के पोते हैं जिन्होंने हर कीमत पर पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया था और जम्मू-कश्मीर में लोकतन्त्र की स्थापना की थी उनकी इस सफलता पर 1946 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें बधाई भी दी थी। हालांकि बाद में देश स्वतन्त्र होने पर इस राज्य के भारत में विलय के बाद 1953 में स्थितियों में परिवर्तन आया और शेख साहब का रवैया बदला भी, जिसके पीछे मुख्य भूमिका रियासत के पूर्व महाराजा की ही मानी जाती है मगर 1975 में शेख साहब ने पुनः भारत की संप्रभुता स्वीकार करते हुए बतौर मुख्यमन्त्री ही इस राज्य की सत्ता संभाली थी (जबकि 1953 में उन्हें प्रधानमन्त्री कहा जाता था ) अतः श्री उमर अब्दुल्ला को भी वक्त के साथ बदलना चाहिए और भारत की एकता व विकास में अपना योगदान करना चाहिए। एेसा ही रवैया अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं को भी पुरानी रट छोड़ कर अपनाना चाहिए और पुरजोर आवाज में 'जय हिन्द' बोलना चाहिए।


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