सम्पादकीय

उपन्यास: Part 21- आशा और तृष्णा

Gulabi Jagat
29 Sep 2024 12:59 PM GMT
उपन्यास: Part 21- आशा और तृष्णा
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Novel: शायद जीवित रहने की यही निशानी होती है कि मन उमंगों से भरा हुआ रहता है। जिस समय हमारे मन में दुख, हताशा, निराशा की भावनाएं होती है उस समय हम शायद अधमरे हो चुके होते हैं। मां के भी मन में आशाओं का संचार हो रहा था। जब आशाओं का संचार जीवन में होता है तब तृष्णा भी बढ़ जाती है। अब मां दिन रात बिस्तर से उठकर खड़ी होने के प्रयास में लगी रहती। मां बिस्तर से इस प्रयास में गिरे न करके, मिनी लकड़ी के स्टूल और लकड़ी के कुर्सी से बिस्तर को घेर के स्कूल जाती थी तो माँ स्टूल को और कुर्सी को पकड़ कर खड़ी होने के प्रयास में लगी रहती। मिनी के आगे ही कई बार मां इस प्रयास में गिरते-गिरते बची।
मिनी मां को खूब समझा कर स्कूल जाती कि अगर हमारे नही रहने पर ऐसा प्रयास करेंगी तो क्या होगा कुछ कहा नही जा सकता। माँ बड़ी मुश्किल से अपनी इच्छाओं को रोक कर रखती। मिनी माँ की मानसिक अवस्थाओं को बहुत अच्छी तरह समझ रही थी। अगर किसी व्यक्ति को डेढ़ साल से किसी एक कमरे में ही नही, एक ही बिस्तर में रहने कहा जाए तो वह तभी तक रह सकता है जब तक वो असमर्थ है। अगर उसके शरीर में जरा भी ताकत होगी तो वह बिस्तर पर कदापि नही रहना चाहेगा।
अब माँ उठ तो नही पाती थी पर उनके खयालों ने जैसे अपनी दिशाएं बदल ली थी। दिमाग पर अत्यधिक दबाव भी सही नही होता। दिमाग पर जरूरत से अधिक दबाव भी मानसिक विकारों को जन्म देता है और मां के मस्तिष्क पर तो स्वयं का ही दबाव था कि वो उठना चाह रही है परंतु उठ नही पा रही है। अब वो दबाव , विभिन्न तरह की प्रतिक्रियाओं में बदलती जा रही थी।
पहली प्रतिक्रिया तो ये हुई कि मां बिल्कुल भूल गई कि उनके दोनो पैर काम नही करते। अब माँ बिस्तर में ही घूमने लगी। अब मां की बेचैनी दिन प्रतिदिन इतनी बढ़ने लगी कि माँ बिल्कुल ऐसी बाते करने लगी जैसे उन्हें कुछ हुआ ही नही है।
हर प्रकार के खाने-पीने की चीजों में उनका मन लगता। वो बाहर के वातावरण को देखने के लिए तरसती रहती। अब मां शरीर से इतनी भारी हो चुकी थी कि उन्हें पूरी तरह से उठाकर व्हील चेयर पर भी नही लाया जा सकता था। जड़ी बूटी का असर था कि मां बिल्कुल पहले की तरह सेठानी जैसी हो चुकी थी। माँ पहले, इतनी फुर्तीली थी कि कभी भी बैठकर नही रह पाती थी। बिल्कुल वैसे ही काम करने की उनकी इच्छा जागने लगी।
मिनी मां की हर इच्छाओं को समझ रही थी परंतु मां को बिस्तर पर छटपटाते हुए देखते रहने के अलावा मिनी के पास इस समस्या का कोई हल भी नही था।
माँ का मन बहलाने के लिए वो लोगो को घर बुलाती। मां के कमरे में बैठती। अब पूरे समय मां की बातों को सुनना, उनके साथ रहना, पैरो की मालिश करना, मां का मन बहलाते रहना। इस चक्कर में मिनी कब और कितने दिनों से बच्चों से दूर हो चुकी थी उसे पता नही था।
बच्चे अब दसवीं और बारहवीं बोर्ड क्लास में आ चुके थे। । बच्चे न तो पूरी तरह नादान ही थे न तो पूरी तरह समझदार ही हुए थे। दोनो की पढ़ाई भी उतनी ही आवश्यक हो चुकी थी जितनी कि मां की सेवा। मां को बिस्तर पर रहते अब 18 महीने हो चुके थे। मिनी से मां की हालत, मां की बेचैनी, माँ की छटपटाहट देखी नही जाती थी। उसे लगता था काश मां के पैरों की ये हालत न हुई होती। दिन-रात की बेचैनी माँ की हर एक गतिविधियों को देखना उनकी तकलीफों को महसूस करना और दुखी होना, आँसू बहाना बस जैसे यही नियति बन चुकी थी। दिन भर लोगो का आना-जाना, और मां को देखते देखते मिनी को बच्चों का ज़रा भी खयाल नही रहा। मिनी को पता ही नही चला कब दोनो बच्चे डिप्रेशन में जाने लगे......क्रमशः
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