सम्पादकीय

धुआं-धुआं न हो उत्सव

Subhi
30 Oct 2021 2:44 AM GMT
धुआं-धुआं न हो उत्सव
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सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस धारणा को दूर किया है कि पटाखों पर उसके द्वारा लगाई गई रोक किसी समुदाय या किसी विशेष के खिलाफ है। शीर्ष अदालत ने यह सख्त टिप्पणी भी की है

आदित्य नारायण चोपड़ा: सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इस धारणा को दूर किया है कि पटाखों पर उसके द्वारा लगाई गई रोक किसी समुदाय या किसी विशेष के खिलाफ है। शीर्ष अदालत ने यह सख्त टिप्पणी भी की है कि आनंद की आड़ में वह नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन की इजाजत नहीं दे सकता। पटाखों पर रोक व्यापक जनहित में है जबकि एक विशेष तरह की धारणा बनाई जा रही है। इसे इस तरह से नहीं दिखाया जाना चाहिए कि यह रोक किसी विशेष उद्देश्य के लिए लगाई गई है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उसने पटाखों पर सौ प्रतिशत रोक नहीं लगाई है। हरित पटाखे बेचे जा सकते हैं। जब भी दीपावली पर पटाखों पर प्रतिबंध की चर्चा होती है कुछ लोग कहने लगते हैं कि सारे प्रतिबंध हिन्दुओं पर ही लगाए जाते हैं, यह हिन्दू संस्कृति पर हमला है। होली के समय यह कहा जाता है कि इस त्यौहार में पानी की बहुत बर्बादी होती है जबकि बकरीद पर कोई नहीं बोलता, जब लाखों जानवरों को मौत के घाट उतारा जाता है। अन्य धर्म के संबंध में ऐसी ही बातें कही जाती हैं। लोगों के सारे सवाल सही हैं लेकिन कोरोना महामारी, वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य की चिंता को धार्मिक रंग देना उचित नहीं है। दिल्ली की हवा वैसे भी विषाक्त हो चुकी है। हर वर्ष दीपावली के दिनों में दिल्ली की हवा बद से बदतर हो जाती है। महानगर एक गैस चैम्बर में तब्दील हो जाता है। यह सही है कि भारत उत्सवों का देश है। हंसी खुशी के वातावरण में हम उत्सवों के मर्म को भूल जाते हैं। दीपावली का दीया तो अमीर-गरीब, बड़े-छोटे सबको एक ही प्रकाश देगा। उत्सव का एक ही मर्म है कि मन की दीवारों को फांद कर एक-दूसरे को गले लगाना। उत्सव ही हमें साम्प्रदायिक भेदभाव भुलाने के लिए प्रेरित करते हैं। यही मर्म के लापता होने से समाज खंड-खंड में बंटा नजर आता है। आज उत्सवों पर बाजार और उसका लेखा-जोखा हावी है। उत्सवों का एक विस्तृत समाज शास्त्र है जो हमें विविधता में एकता का संदेश देता है।दीपावली का मतलब होता है दीपों की लड़ी जो घी या तेल से जलाई जाती हैं। इसका मतलब बारूद भरे पटाखे बिल्कुल नहीं होता। ये रोशनी का पर्व है। यह शोर, धमाके और धुएं का पर्व नहीं है। पटाखे जलाना भारत की परम्परा नहीं रही है। रावण का वध करने के बाद जब भगवान राम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे थे तो नगरवासियों ने पूरे मार्ग में दीये जलाकर अयोध्या को रोशन कर दिया था। ये दीये अधर्म पर धर्म की जीत के प्रतीक के रूप में जलाए गए थे। अंधेरे पर उजाले की जीत के रूप में जलाए गए थे। सिख इस दिन को बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाते हैं, इस दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने जहांगीर के चंगुल से खुद को बचा लिया था और स्वर्ण मंदिर पहुंचे थे। इस मौके पर स्वर्ण मंदिर को रोशनी से सजाया जाता है। जैन धर्म के अनुयाई महावीर को याद करके ये पर्व मनाते हैं। अमावस्या के दिन ही महावीर को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। संपादकीय :कुफ्र टूटा खुदा-खुदा करके !सीमा पर चीन की बगुला भक्तिपदोन्नति में आरक्षण का मुद्दाक्रिकेट, कश्मीर और पाकिस्तानजोखिम भरा है स्कूल खोलनाआइये मिलाएं क्लब की Life Lines सेदरअसल पटाखों का आविष्कार एक दुर्घटना के कारण चीन में हुआ था। 1040 में पटाखों का पहला प्रमाण मिलता है। यूरोप में पटाखों का चलन सबसे पहले 1258 में हुआ था। यहां सबसे पहले पटाखों का उत्पादन इटली में किया था। इसके बाद 14वीं शताब्दी में तो यूरोप के सभी देशों में बम बनाने का काम शुरू ​कर दिया था। भारत में उत्सवों के दौरान आतिशबाजी का चलन तो अंग्रेजों के शासनकाल में शुरू हुआ, परन्तु बारूद के धमाके इससे पहले शुरू हो गए थे। मुगलों ने जब भारत पर हमला किया तो वो अपने साथ बारूद से वो बम बनाते थे अैर भारतीय सेनाओं पर हमले करते थे। बाद में मुगल और कुछ भारतीय राजा जश्न मनाने के लिए घातक बारूद से धमाके करने लगे थे। उन दिनों बम या बंदूक से फायर करना रसूखदारों के जश्न में शामिल हुआ। बाद में इसे परम्परा बना दिया गया। इतिहास गवाह है कि 8 अप्रैल, 1669 को पहली बार औरंगजेब के आदेश से पटाखों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया। इस प्रतिबंध के क्रियान्वयन का बीकानेर के पूर्व राजा महाराजा गंगा सिंह ने समर्थन किया था और एक एक्ट का मसौदा तैयार किया था, जिसमें उत्सव के लिए पटाखों का इस्तेमाल न करने के लिए कहा गया क्योंकि यह पर्यावरण और सम्पत्ति दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।अब मुश्किल यह है कि लोगों ने दीपावली पर पटाखे जलाना ही पर्व का प्रतीक बना लिया है। कुछ लोग आतिशबाजी को ही लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने का जरिया मानने लगे हैं। लोगों को यह समझना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन हो चुका है। पर्यावरण को हम बहुत नुक्सान पहुंचा चुके हैं। अब यह लोगों पर निर्भर करता है कि वह पटाखे जलाने को धार्मिक रंग देकर जानबूझ कर जहर की सांस लेना चाहते हैं, क्या वे भावी पीढ़ी को सांस लेने लायक हवा देना चाहते हैं तो जहरीली हवा लेना देना चाहते हैं। दिल्ली में पैदा होने वाले बच्चों के फेफड़े गुलाबी होने की बजाय काले नजर आते हैं। प्रदूषण से सबके शरीर खोखले हो रहे हैं। प्रदूषण में महामारी का वायरस तेजी से फैलता है, इस​लिए लोगों को समझदारी से काम लेना होगा।

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