सम्पादकीय

नहीं जनाब!

Subhi
21 Nov 2022 4:39 AM GMT
नहीं जनाब!
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प्रधानमंत्री भी कई मौकों, यहां तक कि न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस बात पर जोर दे चुके हैं कि अदालतों का कामकाज आम लोगों को समझ में आने वाली भाषा में होना चाहिए। यह सैद्धांतिक रूप से तो सभी स्वीकार करते हैं, मगर व्यावहारिक स्तर पर इस पर अमल नहीं हो पाता।

Written by जनसत्ता: प्रधानमंत्री भी कई मौकों, यहां तक कि न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस बात पर जोर दे चुके हैं कि अदालतों का कामकाज आम लोगों को समझ में आने वाली भाषा में होना चाहिए। यह सैद्धांतिक रूप से तो सभी स्वीकार करते हैं, मगर व्यावहारिक स्तर पर इस पर अमल नहीं हो पाता।

निचली अदालतों में फिर भी स्थानीय भाषा में कामकाज हो जाता है, फरियादी अपनी बात न्यायाधीश के सामने अपनी भाषा में रख पाता है, मगर ऊपरी अदालतों की भाषा अब भी अंग्रेजी है। इससे दोनों के लिए अड़चन पैदा होती है, न्यायाधीशों को भी और गुहार लगाने वालों को भी। इसका ताजा उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय में तब सामने आया जब एक याचिकाकर्ता खुद पेश होकर न्यायाधीशों के सामने अपने मामले को रखना चाहा।

चूंकि वह हिंदी में अपनी बात कह रहा था, इसलिए न्यायाधीश उसकी बात समझ पाने में असमर्थ थे। न्यायाधीशों ने स्पष्ट तौर पर याचिकाकर्ता को समझाया कि अदालत की भाषा अंग्रेजी है और अगर उन्हें मदद की जरूरत है तो विधिक सहायता उपलब्ध कराई जा सकती है। वह सहायता अदालत ने उपलब्ध कराई भी। इस तरह एक बार फिर यह सवाल गहरा हुआ है कि आखिर कैसे अदालतों की भाषा को जन साधारण की भाषा बनाया जाए।

सर्वोच्च न्यायालय के सामने तकनीकी मुश्किल यह है कि चूंकि वहां देश भर से मामले सुनवाई के लिए आते हैं, और देश में अनेक भाषाएं और बोलियां हैं, जिन्हें समझना उसके जजों के लिए कठिन काम है। इसलिए भी वहां का कामकाज अंग्रेजी में रखा गया है। सर्वोच्च न्यायालयों में चूंकि न्यायाधीशों की इतनी बड़ी संख्या भी नहीं होती कि उनमें हर भाषा के जानकार रखे जा सकें। मगर हिंदी तो लगभग सभी को समझ आती है।

दूसरे भाषाभाषी प्रदेशों के लोग भी महानगरों में रहते हुए रोजमर्रा के कामकाज में हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए ऐसा मानना कठिन है कि सर्वोच्च न्यायालय में हिंदी समझने वाले न्यायाधीश नहीं होंगे। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चूंकि न्यायालयों का कामकाज विधिक तकनीकी शब्दावली में होता है, इसलिए न्यायाधीशों के सामने ऐसी समस्या पैदा होना स्वाभाविक है। इसी समस्या से पार पाने के लिए अदालतों में विधिक सेवा की व्यवस्था की गई है। अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने संबंधित याचिकाकर्ता को विधिक सेवा उपलब्ध करा कर उसके मामले की गंभीरता को समझा, मगर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि कब सर्वोच्च न्यायालय में आम आदमी की भाषा को प्रवेश मिल पाएगा।

ऐसा नहीं कि कानून की पढ़ाई केवल अंग्रेजी में होती है। हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी इसकी पढ़ाई होती है और कानून की भाषा तो आजादी से बहुत पहले विकसित हो गई थी। उसके तकनीकी शब्द अरबी-फारसी में बेशक हों, पर वे आम जन की जुबान पर चढ़े हुए हैं और सहज समझ में आते हैं। हिंदी प्रदेशों के उच्च न्यायालयों में बहुत सारे वकील हिंदी में ही जिरह करते हैं।

एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने तो संस्कृत में फैसला सुनाकर इस जरूरत को रेखांकित किया था कि अदालतों को हर भाषा अपनाने की जरूरत है। ऐसे में दरकार है, तो एक ऐसा तंत्र विकसित करने की, जिसके माध्यम से हिंदी और दूसरी भाषाएं भी उच्च अदालतों में प्रवेश पा सकें।


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