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तवलीन सिंह: क्या चापलूसी हम भारतीय पहचानते नहीं? क्या इसलिए कि यह हमारे लिए स्वाभाविक है? ये सवाल मुझे पहले भी सताते रहे हैं, लेकिन पिछले सप्ताह दो घटनाओं के कारण कुछ ज्यादा सताया है इन सवालों ने। दोनों घटनाएं प्रधानमंत्री के विदेश दौरे से जुड़ी हुई हैं। पहली घटना तब घटी, जब नरेंद्र मोदी बर्लिन पहुंच कर अपने होटल के अंदर गए थे। अडलोन होटल प्रसिद्ध ब्रैंडेनबर्ग के साए में है, सो हमारे टीवी पत्रकारों को बना-बनाया फिल्म सेट मिला प्रधानमंत्री के दौरे पर अपनी रिपोर्टिंग करने के लिए।
मुझे प्रधानमंत्री के इस दौरे में खास दिलचस्पी थी, सो मैं टीवी के सामने अटकी रही शुरू से, यह जानने के लिए कि जर्मन चांसलर ने मोदी से यूक्रेन के बारे में क्या बातें कीं। भारत ने रूस के इस बर्बर युद्ध का शुरू में तो पूरा समर्थन किया, इस बहाने कि हमारी सेना के लिए साठ फीसद से ज्यादा हथियार और असलहा रूस से हम खरीदते हैं। लेकिन फिर जब यूक्रेन में दिखने लगीं बच्चों और महिलाओं की लाशें, जब पता लगा दुनिया को कि रूस ने युद्ध के सारे अंतरराष्ट्रीय नियम तोड़े हैं यूक्रेन पर अपने आक्रमण के दौरान, जब दिखा कि तस्वीरें देख कर हैरान रह गए हैं विश्व के बड़े-बड़े राजनेता, तो भारत ने यूक्रेन के साथ थोड़ी-बहुत हमदर्दी जताई है।
प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे का सबसे महत्त्वपूर्ण संदेश यह होता कि भारत अब पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों की तरफ खिसक रहा है या अब भी उस दीवार पर बैठा हुआ है, जो लोकतंत्र और तानाशाही के बीच खड़ी हो चुकी है।
सो, बड़े उत्साह से मैंने दिल्ली से बर्लिन गए जानेमाने टीवी पत्रकारों की बातें सुनीं। हैरान तब हुई जब तकरीबन जितने भी चैनल मैंने देखे, उन पर ये प्रसिद्ध एंकर इसी बात को कहने में उलझे रहे कि प्रवासी भारतीयों ने किस धूमधाम से प्रधानमंत्री का स्वागत किया। सुबह पांच बजे से होटल के बाहर पहुंच गए थे हमारे लोग, सिर्फ अपने अतिप्रिय प्रधानमंत्री की एक झलक पाने के लिए। ये बर्लिन से। बिल्कुल इसी तरह की बातें सुनी हमने कोपेनहेगेन और पेरिस से। प्रधानमंत्री की प्रशंसा पत्रकारिता के लिबास में।
फिर जब प्रधानमंत्री देश वापस लौटे और भारत की धरती पर पहला कदम रखा तो दुबारा खुशामदी रिपोर्टिंग सुनने को मिली। मैंने एक प्रसिद्ध हिंदी समाचार चैनल पर यह सुना- 'अपने प्रधानमंत्री के कद की वजह से यूक्रेन में युद्ध रुकने की संभावना दिख रही है।' यह पत्रकारिता नहीं, चापलूसी है। मगर इस हद तक चापलूसी ने ले ली है पत्रकारिता की जगह कि किसी को आश्चर्य तक नहीं होता है जब हर शाम बड़े-बड़े टीवी सितारे खुल कर भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं की तरफदारी करते हैं चर्चाओं में। क्या ऐसी आदत इन्होंने सिर्फ मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद डाली है?
इस सवाल पर मैंने जब ध्यान दिया, तो मन में घूमने लगीं कई सुर्खियां उस दौर की जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और सोनिया गांधी मलिका-ए-हिंदुस्तान। इन सुर्खियों में प्रशंसा शायद ही कभी थी और अगर थी तो धुंधला गई निंदा और आलोचना के पहाड़ के नीचे। याद कीजिए आप खुद, 2 जी मामले में भारत सरकार की किस तरह धुलाई हुआ करती थी। बहुत बाद में पता लगा कि वह कोई बहुत बड़ा घोटाला था नहीं। दूसरी मिसाल है, कामनवेल्थ खेलों की जब भ्रष्टाचार का इतना बड़ा हौवा बना दिया था हम पत्रकारों ने कि दुनिया की नजरों में भारत एक अति-भ्रष्ट देश दिखने लगा था।
मोदी के दौर में न नोटबंदी को लेकर इस बेमतलब नीति की निंदा उतनी हुई, जितनी होनी चाहिए थी और न ही हमने कोरोना को लेकर गंभीर गलतियों पर उतना हल्ला मचाया है, जितना हमको मचाना चाहिए था। कोई छोटी बात नहीं है कि भारत सरकार ने टीके भी उस समय नहीं खरीदे थे, जब अन्य देशों ने खरीद कर रखे थे। कोई छोटी बात नहीं है कि प्रधानमंत्री ने एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि कोरोना को काबू करने के तरीके भारत से सीखने चाहिए दुनिया को।
कोई छोटी बात नहीं है कि इस बयान के कुछ हफ्तों बाद आया कोरोना का ऐसा भयानक दौर कि लोग आक्सीजन और दवाइयों के अभाव में अस्पतालों के दरवाजों पर दम तोड़ते दिखे। गंगा में उन लाशों के दृश्य अब भी भुलाना मुश्किल है, न ही भूलती हैं गंगा के किनारे वे रेतीली कब्रें।
अब जब विश्व स्वास्थ्य संगठन से आई है एक ऐसी रिपोर्ट, जो कहती है कि भारत सरकार कोविड मौतों के आंकड़े छिपा रही है और असली आंकड़े दस गुना ज्यादा हैं, तो चापलूसी करने लगे हैं भारत सरकार के आला अधिकारी। वही लोग जिन्होंने टीके समय पर नहीं खरीदे, अब कह रहे हैं कि डब्ल्यूएचओ के आंकड़े झूठे हैं। किसकी बात मानेगी दुनिया? क्यों भारत सरकार की बातें मानी जाएगी, जब दुनिया बहुत पहले से देख चुकी है कि मोदी के दौर में जानेमाने पत्रकार भी अपनी गिनती मोदी भक्तों की सेना में गर्व से करवाते हैं?
इसके बारे में मैंने जब भी अपने पत्रकार बंधुओं से बात की है, तो एक ही बात कहते हैं सब कि माहौल ऐसा बन गया है कि निडर पत्रकार अब रहे नहीं हैं देश में। जो थोड़े-बहुत बचे हैं ईमानदारी से रिपोर्टिंग करने वाले, उनके घर हर दूसरे दिन पहुंच जाती हैं केंद्र सरकार की जांच एजेंसियां और इतना दबाव पड़ता है उन पर कि पत्रकारिता त्याग कर इन लोगों को अपना सारा समय बिताना पड़ता है अपनी सफाइयां देने में। दुनिया सब देखती है, सो स्वतंत्र पत्रकारिता को लेकर भारत बहुत बदनाम रहा है पिछले दिनों। चापलूसी के पर्दे में कुछ समय तक छिपा रहता है यथार्थ। अंत में यह हमेशा कच्चा पर्दा साबित होता है।