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- चिर सुख न चिर दुख
बुलाकी शर्मा: मेरे एक मित्र अति भावुक हैं। वे न तो सहजता से खुशियां संभाल पाते हैं और न ही धैर्य से दुख सह पाते हैं। जीवन में आई छोटी-छोटी खुशियां उन्हें उमंगित-उल्लसित करने लगती हैं, वहीं छोटी-सी समस्या या परेशानी को पर्वताकार दुख मान कर वे उदास-हताश हो जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में वे इतने असहज हो जाते हैं कि अपने मिलने वालों से उन्हें तत्काल साझा कर स्वयं को हल्का करना जरूरी समझते हैं।
दुख या सुख की ऐसी स्थितियां चाहे निजी होंं या पारिवारिक, कार्यालयी होंं या सामाजिक, वे इस हिदायत के साथ साझा करते हैं कि ये बहुत निजी बातें हैं, किसी से भी साझा नहीं करनी चाहिए, किंतु आप मेरे अपने हैं और आप पर मुझे अपने से भी ज्यादा भरोसा है, इसलिए बता रहा हूं। कृपया ये बातें दूसरों को भूल कर भी न बताएं
अगर किसी बात पर घर में पत्नी से नाराज हो गए, तो वे उनकी बुराई करते हुए नहीं झिझकेंगे, वहीं वे उनसे खुश हुए तो उन्हें अनेक विभूषणों से अलंकृत करने लगेंगे। अपने भाइयों से खुश हुए तो भरत और लक्ष्मण समान बताते हुए उनकी प्रशंसा करने लगेंगे और नाराज हुए तो उन्हें राक्षस कहने में संकोच नहीं करेंगे। जब ये बातें घूम-फिर कर पुन: उन तक पहुंचती हैं, तब दुखी हो जाते हैं। अफसोस करते हैं कि जिन्हें मैंने अपना मान कर अपने मन की बातें बताईं, उन्होंने वे बातें दूसरों को कह दीं। बहुत विश्वासघाती निकले वे। आगे से उन्हें कोई बात नहीं बताऊंगा। मगर अतिभावुकता की बीमारी से वे ऐसे ग्रस्त हैं कि एक-दो दिन बीते नहीं कि फिर अपनी निजी बातें दूसरों से कहते नजर आते हैं।
मेरे यह अति भावुक मित्र हों या आप और हम, भावुकता के वशीभूत ऐसी गलतियां प्राय: करते रहते हैं। कोई बड़ी समस्या आने पर उसके निदान के लिए अपने आत्मीयों से सलाह-मशविरा लेना सही है, पर जब अतिरेक में बह कर अपनी छोटी-छोटी पारिवारिक समस्याएं, परेशानियां, नाराजगियां हम दूसरों को बताने लगते हैं, तब हमारी स्थिति हास्यास्पद बन जाती है। अपने निजी सुख-दुख दूसरों से साझा करते हुए हम भूल जाते हैं कि जब हम अपने सुख-दुख अपने तक नहीं रख सकते, तब हम सुनने वाले से ऐसी अपेक्षा क्यों रखते हैं कि वह हमारी बातें दूसरों से साझा नहीं करेगा?
दूसरों की खुशियों में खुश और दूसरों के दुखों में दुखी होने वाले लोग कम ही पाए जाते हैं। अधिकतर तो दूसरों की खुशी में दुखी और दूसरों के दुख में खुश होने वाले मिलेंगे। इस मानवीय कमजोरी से कमोबेश हम सभी ग्रस्त हैं, बावजूद इसके हम दुख की स्थितियों में विचलित होकर और खुशी के क्षणों में हर्षित होकर उन्हें अन्य के समक्ष अभिव्यक्त करके अपेक्षा करने लगते हैं कि संबंधित भी हमारी मन:स्थिति के अनुकूल दुखी या खुश होगा।
अगर हम किसी से अपनी खुशियां साझा करेंगे तो हमें औपचारिकता की ठंडी-सी बधाई जरूर मिल जाएगी, पर हमारी खुशी दूसरों को बताने में उसकी बिल्कुल रुचि नहीं होगी। मगर हम जब अपनी निजी समस्याएं, अपनी परेशानियां बताएंगे तो वह संवेदना-सहानुभूति का मलहम लगाते हुए सांत्वना की औपचारिकता जरूर निभाएगा, पर उसे आत्मसंतोष हमारी परेशानियों को प्रचारित करने से मिलेगा।
हमारी समझदारी इसी में है कि हम सुख और दुख को समभाव से लें। जीवन में धूप और छांव की तरह सुख और दुख आते रहते हैं। न सुख स्थायी है, न दुख। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। साहस के साथ दुख का सामना करने के बाद जो सुख और खुशी मिलती है, उसका आनंद ही निराला होता है। जीवन में सुख-दुख की आंख मिचौनी चलती रहती है। हमारे सभी पल एक जैसे बीतने लगें तो जीवन के प्रति आकर्षक कम होने लगता है।
जीवन में सुख आएंगे तो दुख भी आएंगे। ऐसा कोई नहीं है, जिसने जीवन में मात्र सुख ही सुख का आनंद लिया या कि मात्र दुख ही दुख भोगने को विवश हुआ। प्रकृति भी परिवर्तनशीलता का हमें संदेश देती रही है। ऋतुएं भी दो-दो महीने में परिवर्तित होती रहती हैं, एक-सी नहीं रहतीं। भ्रमर जैसा प्राणी भी इस परिवर्तन को सहजता से लेता है, पर प्राणियों में सबसे बुद्धिमान माने जाने वाला मानव सहजता से नहीं ले पाता। सबसे सुहानी वसंत ऋतु में भ्रमर हर्षित-उमंगित भाव से पुष्पों पर मंडराते हैं, मधुर गुंजन करते हैं। मगर पतझड़ ऋतु की भयावहता में भी वे हौसला रखते हैं। निराश नहीं होते। उन्हें विश्वास है कि दुख के बाद सुख आना ही है।
जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। यह अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। हमें धैर्य और साहस से विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए उन्हें दूर करने का पूरी दृढ़ता से प्रयास करना चाहिए। अगर हममें आत्मविश्वास बना रहेगा तो मुश्किल से मुश्किल स्थितियों को भी अपने अनुकूल बना सकने में समर्थ होंगे। इसके लिए आवश्यक है स्वयं से संवाद। अपनी छोटी-छोटी परेशानियां दूसरों से साझा कर उनके सामने दयनीय बनने की जगह हमें अपनी परेशानियां स्वयं से साझा करने की आदत डालनी चाहिए।