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वर्ष 2021 में कोरोना के प्रकोप के चलते यह संख्या 23349 रही
मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता हेतु आज निजी और सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों, बिजनेस घरानों और अन्य उद्यमियों के लिए यह एक अवसर भी है और चुनौती भी…
रूस द्वारा यूक्रेन पर युद्ध करने के बाद जब यूक्रेन में फंसे भारतीयों की बात सामने आई तो एक बात जिसकी जानकारी सरकार और कुछ अन्य लोगों को थी, लेकिन आम समाज इस बात से अनभिज्ञ था कि यूक्रेन में 20 हजार भारतीय विद्यार्थी रह रहे थे, जिसमें हजार मेडिकल विद्यार्थी थे। यूक्रेन अकेला देश नहीं है जहां भारतीय विद्यार्थी मेडिकल की शिक्षा के लिए जाते रहे हैं। इसके अलावा चीन, रूस, किर्गीस्तान, फिलिपींस और कजाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में विद्यार्थी मेडिकल की शिक्षा हेतु जाते हैं। गौरतलब है कि वहां से एमबीबीएस डिग्री हासिल करने के बाद इन विद्यार्थियों को भारत में एक परीक्षा से गुजरना होता है जिसका नाम है फोरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स इक्जामिनेशन (एफएमजीई), जिसे नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन द्वारा करवाया जाता है। विडंबना यह है कि इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों का प्रतिशत अभी तक 10.4 प्रतिशत से 18.9 प्रतिशत तक ही रहा है। यदि पिछले 5 वर्षों की बात की जाए तो यह प्रतिशत औसतन 15.82 प्रतिशत रहा। पिछले 5 वर्षों में इस परीक्षा में भाग लेने वालों की संख्या में तीन गुणा वृद्धि हुई है। 2015 में जहां 12116 विद्यार्थी इस परीक्षा में उतरे, 2020 में यह संख्या 35774 तक पहुंच गई थी। वर्ष 2021 में कोरोना के प्रकोप के चलते यह संख्या 23349 रही।
क्यों जाते हैं विदेश ये मेडिकल विद्यार्थी?
वर्ष 2021 में आयोजित एमबीबीएस हेतु नीट की परीक्षा में 16 लाख विद्यार्थी उतरे, जबकि देश में कुल एमबीबीएस सीटों की संख्या मात्र 83 हजार थी। इस बात में कोई संदेह नहीं कि देश में मेडिकल डॉक्टरों की भारी जरूरत है। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदंडों को देखा जाए तो हर 1000 व्यक्ति के पीछे एक डॉक्टर होना चाहिए, यानी हमें कुल 13,08,000 डॉक्टरों की जरूरत है, जबकि देश में अभी भी सिर्फ 12 लाख पंजीकृत चिकित्सा कर्मी है। माना जा सकता है कि अभी भी देश में 1,08,000 डॉक्टरों की कमी है। ऐसा नहीं है कि देश में मेडिकल सीटों में वृद्धि नहीं हुई है। वर्ष 2014 में जहां मेडिकल सीटों की संख्या मात्र 54358 थी, अब तक बढ़कर वह 88120 तक पहुंच गई है। विडंबना यह है कि इनमें से लगभग आधी सीटें सरकारी कॉलेजों में हैं और शेष निजी कॉलेजों में। इन निजी कॉलेजों में 4-5 साल की कुल एमबीबीएस शिक्षा हेतु हालांकि 50 लाख से डेढ़ करोड़ रुपए तक की फीस वसूली जाती है, उनमें भी प्रवेश के लिए विद्यार्थियों को अत्यंत कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है। हाल ही तक अधिकांश प्राइवेट कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया अत्यंत अपारदर्शी और भ्रष्टाचार युक्त थी। माना जा रहा है कि नीट परीक्षा होने के बाद मेडिकल में प्रवेश में भ्रष्टाचार कम हुआ है। हालांकि मेडिकल प्रवेश परीक्षा अब पहले से अधिक पारदर्शी हो गई है और इसमें भ्रष्टाचार भी काफी कम हुआ है, लेकिन इसके बावजूद सच्चाई यह है कि देश में जितने विद्यार्थी मेडिकल शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, एमबीबीएस सीटों में काफी वृद्धि होने के बावजूद उनमें से 5 प्रतिशत विद्यार्थियों को ही प्रवेश प्राप्त हो पाता है।
यही नहीं, निजी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की पढ़ाई अत्यंत खर्चीली है, हालांकि सरकारी संस्थाओं में यह 20 हजार से 7.5 लाख रुपए है। देश में एमबीबीएस सीटों की कमी और निजी क्षेत्र में महंगी पढ़ाई के चलते बहुत बड़ी संख्या में एमबीबीएस पढ़ाई के इच्छुक विद्यार्थी विदेशों में जाकर एमबीबीएस की शिक्षा प्राप्त करते हैं। रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने के बाद वहां भारतीय विद्यार्थियों की बड़ी संख्या के बारे में देश का ध्यान आकर्षित हुआ और यह ध्यान में आया कि यूक्रेन में ही हजारों विद्यार्थी एमबीबीएस की शिक्षा ले रहे हैं, हालांकि कुल भारतीय एमबीबीएस विद्यार्थियों की दृष्टि से यूक्रेन का स्थान दूसरा है, जबकि सबसे अधिक मेडिकल विद्यार्थी (23 हजार) चीन में हैं, रूस में 16500, फिलीपिंस में 15 हजार, किर्गीस्तान में 10 दस हजार, जार्जिया में 7500, काजिकिस्तान और पौलेंड में क्रमशः 5200 और 4000 भारत के मेडिकल विद्यार्थी हैं। यहां तक कि बांग्लादेश में भी 5200 भारतीय मेडिकल विद्यार्थी गए हुए हैं। गौरतलब है कि यूक्रेन में पूरे विश्व में कहीं से भी ज्यादा विदेशी विद्यार्थी भारत से ही हैं, जिसमें से लगभग 50 प्रतिशत मेडिकल अथवा संबंधित शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। भारत से लगभग एक लाख से भी ज्यादा विद्यार्थी दुनिया के अलग-अलग मुल्कों में मेडिकल की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक विद्यार्थी का एमबीबीएस कोर्स के लिए कुल खर्च 25 से 30 लाख रुपए आता है। यानी देखा जाए तो लगभग 5 वर्ष की एमबीबीएस डिग्री के लिए लगभग 25 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। डालरों में यह राशि लगभग 3.5 अरब डालर है। यदि भारत से जाने वाले अन्य विद्यार्थियों को भी शामिल किया जाए तो देखते हैं कि भारत से 11,33,749 विद्यार्थी दुनिया के दूसरे मुल्क में पढ़ रहे हैं। अलग-अलग प्रकार की शिक्षा पर अलग-अलग खर्च होता है, लेकिन समझा जा सकता है कि यदि भारत से मेडिकल समेत अन्य प्रकार के विद्यार्थियों का पलायन कम किया जा सके तो देश की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा में खासी बचत हो सकती है।
क्या है समाधान?
एक ओर देश में महंगी मेडिकल की पढ़ाई तो दूसरी ओर योग्य विद्यार्थियों के लिए सीटों की कमी देश से विद्यार्थियों को विदेशों में जाकर पढ़ने को मजबूर कर रही है। विदेशों में मेडिकल की पढ़ाई का स्तर उसी से समझ में आ जाता है, कि मात्र 16 प्रतिशत से भी कम विद्यार्थी ही देश में फॉरेन मेडिकल ग्रैजुएट एग्जाम (एफएमजीई) की परीक्षा में उत्तीर्ण हो पाते हैं। इस प्रकार की डिग्री प्राप्त करने के लिए देश की 3.5 अरब डॉलर की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की बर्बादी भी चिंता बढ़ा रही है। यूक्रेन युद्ध से कहीं पहले, पिछले वर्ष ही नेशनल मेडिकल कमीशन ने यह घोषणा की थी कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की आधी सीटें विद्यार्थियों को सरकारी कॉलेजों की फीस पर उपलब्ध कराई जाएंगी। इस बाबत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया ट्वीट भी महत्त्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने इसी बात को दोहराया है, कि आधी प्राइवेट सीटों को सरकारी कालेजों की फीस पर उपलब्ध कराया जाएगा। स्वाभाविक है कि सरकार के इस कदम से योग्य विद्यार्थी जो धनाभाव के कारण एमबीबीएस की पढ़ाई नहीं कर पाते. उन्हें राहत तो अवश्य मिलेगी, लेकिन भारत से योग्य विद्यार्थियों का मेडिकल की शिक्षा हेतु पलायन और विदेशी मुद्रा की भारी बर्बादी रोकने के लिए नए मेडिकल कॉलेज खोलना और वर्तमान कॉलेजों की सीटों में वृद्धि ही एकमात्र उपाय है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत से बड़ी संख्या में मेडिकल की पढ़ाई पूर्ण कर चिकित्सक अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों में चले जाते हैं जिससे देश में डॉक्टरों की कमी बनी रहती है।
भारत में आज भी 596 मेडिकल कॉलेज हैं जहां एमबीबीएस की 88120 सीटें हैं। उधर एमसीआई को भंग करने के बाद नेशनल मेडिकल कमीशन का गठन हो जाने के बाद देश में अतिरिक्त मेडिकल सीटें स्थापित करने की गति में पहले से ही खासी वृद्धि हुई है। पिछले 7 वर्षों में मेडिकल सीटों में हर वर्ष 8 प्रतिशत से अधिक की दर से वृद्धि दर्ज हो रही है। इस गति को और ज्यादा तेज करने की जरूरत है। आने वाले समय में और अधिक मेडिकल कॉलेज खोलना कोई असंभव कार्य नहीं है। माना जाता है कि एक मेडिकल कॉलेज खोलने में 250 से 500 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। 2014 के बाद देश में 209 नए मेडिकल कॉलेज खोले गए, जिसमें अधिकांश प्राइवेट कॉलेज थे। यूक्रेन युद्ध के बाद इस समस्या को समझते हुए जाने माने उद्योगपति आनंद महेंद्रा द्वारा एक मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा से एक नई प्रकार की शुरुआत हुई है। इसी प्रकार देश में असंख्य उद्यमी हैं, जो मेडिकल कॉलेज खोलने में सक्षम हैं। नीति निर्माताओं में भी इस संबंध में सोच विकसित हो ही रही है। मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता हेतु आज निजी और सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों, बिजनेस घरानों और अन्य उद्यमियों के लिए यह एक अवसर भी है और चुनौती भी।
डा. अश्विनी महाजन
कालेज प्रोफेसर
Gulabi Jagat
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