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साकेत सहाय: एक और पर्यावरण दिवस बीता। इन प्रतीकात्मक दिवसों पर भारतीयता की मूल प्रकृति को दर्शाने वाली लोकभाषा और संस्कृति से बृहत्तर समाज की दूरी को लेकर मन में कुछ सवाल उभरते हैं। प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने लिखा है, 'किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझ कर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं।
हम 'विकसित' हो गए हैं। भाषा यानी केवल जीभ नहीं। भाषा यानी मन और माथा भी। एक का नहीं, एक बड़े समुदाय का मन और माथा, जो अपने आसपास के और दूर के भी संसार को देखने-परखने-बरतने का संस्कार अपने में सहज संजो लेता है। ये संस्कार बहुत कुछ उस समाज की मिट्टी, पानी, हवा में अंकुरित होते हैं, पलते-बढ़ते हैं और यदि उनमें से कुछ मुरझाते भी हैं तो उनकी सूखी पत्तियां वहीं गिरती हैं, उसी मिट्टी में खाद बनाती हैं। इस खाद यानी असफलता की ठोकरों के अनुभव से भी समाज नया कुछ सीखता है।'
भाषा या बोली मात्र बोलने का जरिया नहीं होते, उनमें एक संस्कृति छिपी होती है। भाषा के बदलने से एक पूरा समाज प्रभावित होता है। क्योंकि यह हमारे दिमाग को बदलता है। औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था और उसके बाद गढ़े गए विकास ने हमारी प्रकृति और पर्यावरण के साथ ही हमारी सामाजिकता को भी नष्ट किया है। इस व्यवस्था ने जहर की भांति धीरे-धीरे पूरे समाज और संस्कृति को बदल कर रख दिया है। इसमें एक बड़ी आबादी को हमारी संस्कृति का सब कुछ पुराना, पिछड़ा और दकियानूसी लगता है।